8744. न्याय पडै़ मुख छार

मैना तो मैं ना करै, लागै दूध की प्यार।
रासभ जो हूं-हूं करै, न्याय पडै़ मुख छार।।
मैना कभी अहंकार नहीं करती, इसलिए वह सबको अधिक प्यारी लगती है। लेकिन गधा जो हूं-हूं करके अहंकार करता रहता है, उसके मुंह पर राख पड़ती है। मतलब यह कि अहंकारी का सिर सदा नीचता होता है।
एक जंगल में तालाब के किनारे एक बरगद का पेड़ था। उसके कोटर में एक खरगोश रहता था।

तालाब में एक कछुआ रहता था। समय मिलने पर कछुआ तालाब से निकल कर पेड़ के नीचे आ जाता और दोनों खूब बाते करते थे। खरगोश बहुत चालाक था, कछुआ बहुत शांत और सीधा सादा था। खरगोश हमेशा कछुए की चाल पर टिप्पणी करता रहता था। कछुआ चुपचाप सुन लेता और अपने मित्र की बात को हंसकर टाल देता, क्योंकि आपस में मित्रता जो थी। अब एक मित्र दूसरे मित्र की बात का बुरा नहीं मानता है। खरगोश को अपनी फुर्तीली चाल पर बड़ा घमंड था । एक दिन उसे मजाक सूझा और उसने कछुए से कहा कि मित्र, क्यों न हम दोनों एक दौड़ प्रतियोगिता रख लें और हां, लंबी दौड़ की रखेंगे। कछुआ तैयार हो गया। अब तो खरगोश फूला नहीं समा रहा था। जंगल के अपने सारे दोस्तों को दौड़ देखने का निमंत्रण दे आया। वह मन में सोच रहा था कि जीतूंगा तो मैं ही। यह बहुत ही धीरे धीरे चलने वाला कछुआ भला मेरी बराबरी क्या करेगा।

नियत समय पर खरगोश और कछुआ दौड़ के लिए तैयार हो गए। इस अनोखी दौड़ को देखने के लिए जंगल के सारे पशु-पक्षी वहां इकटठे हो गए। रास्ते भर जमा थे। पक्षी तो पेड़ों पर फुदक रहे थे, बाकी जानवर रास्ते के किनारे बैठे उत्सुकता से देख रहे थे। खरगोश थोड़ी देर दौड़ता, उसके बाद पीछे देखता। कछुआ कहीं नजर ही नहीं आता तो लगता। होते होते दोपहर हो गई। धूप बहुत तेज हो गई है तो उसने सोचा कि अभी तो कछुआ बहुत दूर है। वह झाडिय़ों के नीचे विश्राम करने लगा और उसे नींद आ गई। जब उसकी नींद खुली तब वह अपने लक्ष्य की ओर भागा।

लक्ष्य दौड़ का समाप्ति बिंदु निर्धारित था। धैर्य और विश्वास के साथ प्रयास करके उसने चालाक खरगोश को हरा दिया। जंगल के सारे जीव जानवर कछुए की जाय जयकार करने लगे। खरगोश हार जाने के कारण शर्मा के मारे पानी पानी हो गया। उस दिन के बाद खरगोश ने कछुए पर टीका टिप्पणी करना बंद कर दिया। धैर्य और प्रयत्न से आखिर सफलता मिलती ही है।