8950. लहरें ऊठै लोभ री

भर दरियाव समंद, लहरां ऊठै लोभ री।
मांहे ज्यां मतिमंद, मिनख घणा डूबै-मरै।।


संसार रूपी समुद्र में लोभ की लहरें तो जब-तब उठती ही रहती हैं। अब जो मतिमंद होते हैं, वै उसमें डूब मरते हैं । लोभ मनुष्य को हानिकारक ही सिद्ध होता है।
पद्यखंड नगर का राजा प्रजापति अपने नाम को सार्थक करता था। वह सही शब्दों में प्रजा का पति-यानी पालन करने वाला था। उसके सुशासन में प्रजा सभी प्रकार से सुखी थी। नगर समृद्ध था और बड़े ढंग से बसा हुआ था। यह नगर एक नदी के तट पर बसा था। नदीसदानीरा थी, जिसमें नगर के लोग जल क्रीड़ा करके आनंद मनाते थे। राजा प्रजापति का एक पुत्र था। उसका नाम तो कुछ और था, लेकिन उसे सुगंधित वस्तुओं को सूंघने का अत्यधिक शौक था। इसलिए उसका नाम गंधप्रिय पड़ गया। अब सब लोग उसे गंधीप्रिय नाम से जानते पहचानते थे। वह भी अपने इस गुणवाचक को सुनकर बहुत प्रसन्न होता था।

राजकुमार गंधप्रिय का सुगंधित वस्तुओं को सूंघने शौक व्यसन की सीमा तक जा पहुंचा था। अब उसे सुगंधित वस्तु सूंघे बिना एक क्षण को भी चैन नहीं पड़ता। उसका शयन-कक्ष तो हर समय सुगंधित रहता ही था। वह अपने कपड़ों पर भी इत्र लगाता, जिस जल से स्नान करता वह भी सुगंधित होता यहां तक कि उसके शौचगृह में भी सुगंधित ही फैली रहती थी। दास दासी भी सुगंधित वस्त्र ही पहनते थे। गंधप्रिय का व्यसन विवेक की सीमा को पार कर गया था। कोई भी सुगंधित वस्तु उसे कहीं मिल जाती तो उठा लेता और घंटों सूंघता रहता। यह विचार नही करता था कि यह वस्तु उसके लिए लाभप्रद है या हानिकारण? एक बार उसके मन में जल क्रीड़ा का विचार आया। उसकी इच्छा अनुसार एक नौका सजायी गई। उसमें सुगंधित वातावरण रहने का विशेष ध्यान रखा गया। दास-दासियों को गंध द्रव्यों का छिड़काव कर दिया, जिससे नौका महक उठी।

उस नौका में बैठकर राजकुमार गंधप्रिय जल क्रीड़ा का आनंद लेने लगा। राजकुमार नदी में उठती गिरती लहरों को देख रहा था। तभी उसकी दृष्टि अेक काष्ठ-मंजूषा पर पड़ी। एक छोटी सी लकडी की मंजूषा नदी की लहरों पर तैरती हुई बह रही थी। राजकुमार को उत्सुकता हुई कि इस मंजूषा में क्या है, किसने इसे बहाया है? वह विचार कर ही रहा था कि बहती हुई मंजूषा उसकी नाव से आ लगी। राजकुमार ने मंजूषा निकलवाई और उसे खोलकर देखा। उसमें एक पुडिय़ा रखी थी। उस पुडिय़ा में से अत्यंत तीव्र और मादक सुगंध आ रही थी। राजकुमार ने उसे सूंघा और तत्काल ही उसके प्राण पंखेरू उड़ गए। पुडिय़ा में अत्यंत तीव्र सुगंधित विष था, जिसको सूंघते ही मनुष्य मरण शरण हो जाता है। गंधप्रियता की वासना के कारण राजकुमार गंधप्रिय मरकर भ्रमर बना और भांति-भांति के पुष्पों की सुगंधि लेता रहा। इसके पश्चात वह अनंत संसार में भ्रमण करता रहा।