पानी के अपव्यय से बचें : आचार्य

आचार्य महाश्रमण

छापर में आचार्य महाश्रमण के चातुर्मासार्स प्रवचन

विशेष प्रतिनिधि, छापर (चूरू)। चातुर्मास के लिए छापर में मंगलवार को प्रवचन दे रहे विराजमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य महाश्रमणजी के आध्यात्मिक प्रकाश से रेतीले टीलों की धरती प्रकाशित हो रही है। छापर चतुर्मास के दौरान भगवती सूत्र आगमाधारित व्याख्यानमाला से आचार्यश्री श्रद्धालुओं को नित नया आलोक बांट रहे हैं। इस आलोक से जन-जन का पथ आलोकित हो रहा है। इसलिए दिन-प्रतिदिन श्रद्धालुओं की उपस्थिति की संख्या भी बढ़ती जा रही है। वहीं आसपास के श्रद्धा के क्षेत्रों से भी नियमित रूप से श्रद्धालु इस सुअवसर का लाभ उठाने को पहुंच रहे हैं।


मंगलवार को उपस्थित श्रद्धालुओं को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्राधारित अपने मंगल प्रवचन में पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि एक प्रश्न किया गया कि भंते क्या सूक्ष्म स्नेहकाय सदा संगठित रूप में गिरता रहता है? उत्तर दिया गया कि हां, वह सदैव गिरता रहता है। जैन वाङ्मय में एक जल के विषय में बताया गया कि सूक्ष्म स्नेहकाय ऊपर से निरंतर गिरता रहता है।

वह जल का ही एक रूप होता है। पुन: एक प्रश्न किया गया कि क्या वह ऊंचे लोक में गिरता है, नीचे लोक में गिरता है अथवा तिरछे लोक में गिरता है? उत्तर दिया गया कि वह तीनों लोकों में गिरता है। पुन: प्रतिप्रश्न किया गया कि जैसे बादल से वर्षा होती है और वह कहीं एकत्र हो जाता है और लम्बे समय तक रहता है तो क्या उसी प्रकार सूक्ष्म स्नेहकाय भी कहीं लम्बे समय तक एकत्रित रहता है? उत्तर दिया गया कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।

सूक्ष्म स्नेहकाय ओस से भी सूक्ष्म होता है

सूक्ष्म स्नेहकाय जल शीघ्र ही विध्वंस को प्राप्त हो जाता है। छह जीव निकायों में दूसरे अपकाय की श्रेणी में इस सूक्ष्म स्नेहकाय को माना जा सकता है। अपकाय में और भी अनेक प्रकार के जल जैसे-बर्फ, ओला, ओस आदि होते हैं। सूक्ष्म स्नेहकाय ओस से भी सूक्ष्म होता है। यह तमसकाय से निरंतर गिरता रहता है, इसलिए साधचर्या में सिर ढंक कर निकलना होता है। साधु कभी रात को निकलते हैं तो अपना माथा सूक्ष्म स्नेहकाय के कारण ही ढंकते हैं कि साधुचर्या में इस जल के भी हिंसा से बचने का प्रयास किया जाता है।

जल को सचित्त माना गया है

आचार्य महाश्रमण

जल को सचित्त माना गया है। पानी में दिखाई देने वाला स्थावर होते हैं। पानी के एक बूंद में भी असंख्य जीव होते हैं। साधु के लिए तो अचित्त जल ग्रहण करने योग्य होता है। साधु को अपने प्रत्येक कार्य में जल का सीमाकरण करने का प्रयास करना चाहिए। साधु-साध्वियों को जल के उपयोग में संयम करने का प्रयास करना चाहिए। अनावश्यक पानी का व्यय न हो। गृहस्थ भी अपने जीवन में जितना संभव हो सके, जल का अपव्यय न करे। कई बार जल की कमी आदि की बातें सुनने को आती हैं। ऐसे में आदमी को पर्याप्त पानी होने के बाद भी कम व्यय हो ऐसा करने का प्रयास करना चाहिए। पानी के माध्यम से भी हिंसा न हो, इसका प्रयास हो।

तपस्या का प्रत्याख्यान किया

आचार्यश्री ने कालूयशोविलास कथा का संगान करते हुए आचार्य कालूगणी के आचार्य बनने के बाद उनके विहरण मार्ग और संघ की सार-संभाल का वर्णन करते हुए कहा कि उनके युग में साधु-साध्वियों की अनेक दीक्षाएं हुईं। अनेकानेक संत-साध्वियां हुईं, उनमें एक थे मुनिश्री घासीरामजी, जो बड़े नामी संत थे।

राजलदेसर में भी दीक्षा हुई। इस प्रकार कालूयशोविलास में वर्णित अनेक प्रसंगों को आचार्यश्री ने सुमधुर स्वर में संगान करते हुए इसकी आख्या प्रस्तुत की। कार्यक्रम में अनेक तपस्वियों ने अपनी धारणा के अनुसार अपनी तपस्या का प्रत्याख्यान किया। मुनि राजकुमारजी ने लोगों को तपस्या के संदर्भ में उत्प्रेरित किया।

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