पगै लागणां से परहेज

एक हिसाब से देखा जाए तो यह कदम परंपरा पर प्रहार है। दूसरे हिसाब से देखा जाए वो वह कदम लोगों को कोरोना संक्रमण से बचाने का प्रयास है। तीसरे हिसाब से देखा जाए तो यह कदम ‘चिडिय़ाघर के किरदार की नकल है। चौथे हिसाब से देखा जाए तो उनके सारे कदम लडख़ड़ाते नजर आ रहे हैं। इन कदमों को कौन, किस नजरिए से देखता है, यह उन पर निर्भर है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
कदम और कदमों का हिसाब-किताब बाद में कर लेंगे, पहले बात नजरिए की। इसको लेकर भांत-भांत की धाराएं फूटती दिखाई देती है। खासकर चर्चा दो पर करें तो बेहतर होगा। एक में दम दूसरी में चासे। चासे वाली चर्चा कहती है कि नजरिए की उत्पति ‘या वाली संस्कृति से हुई और दम वाली चर्चा कहती हैं कि नजरिया नजर से निकला।

इन दोनों को परिभाषित करना भी जरूरी। हथाईबाजों ने पिछले दिनों ‘या पर जम के चर्चा की थी। इसमें भी भेद। एक ‘या का संदेश अलग और दूसरे ‘या के तार प्रचलित नामों से जुड़े हुए। पहले ‘या की बात करें तो उसमें ‘अथवा का पर्यायवाची शब्द दिखाई देगा। दिखाई क्या देना है, ऐसा है भी। कान इस साइड से पकड़ो या उस साइड से, बात एक ‘इज। उमेठिजेगा तो कान ही। इस कहावत को खरबूजे वाली कहावत से भी जोड़ा जाता है। याने कि कहावतों में भी पर्याय। अब तक तो पर्यायवाची शब्द ही सुने थे, अब पर्यायवाची कहावतों का लोकार्पण भी हो गया। तभी तो हथाईयों को ज्ञान केंद्र कहा जाता है। एक कहावत में कान और दूसरे में खरबूजा। चाकू खरबूजे पे पड़े या खरबूजा चाकू पे। कटना तो खरबूजे को ही है। एक में कान पीडि़त और दूसरे में खरबूजा। दोनों के किरदार चेंज मगर कहावत का सार सरीखा। यही टोटका ‘या पर लागू होता है। या का पर्याय अथवा और अथवा का पर्यायवाची शब्द या। इम्तहानों में इनका रंग रूप प्रभावशाली तरीके से दिखता है। परचे में सवालों का विकल्प। या तो यह सवाल सॉल्व करो-अथवा वह। साफ शब्दों में कहे तो दोनों से जिस का जवाब ढंग से दे सको, दे डालो। दोनों के दे सकों तो वैसा नही चलेगा और दोनों में से किसी का नहीं दे पाओ तो आप जाणो और आप के काम।


ऐसे में कई विद्यार्थी यहां-वहां से टीप के काम चला लेते हैं। कई प्रतिभागी टोरे मार देते हैं। परीक्षा में नेगेटिव मार्किंग का प्रावधान हो तो टोरे उलटे भी पड़ सकते हैं। कुछ विद्यार्थी सवाल छोड़ देते हैं। इन सब विकल्पों के बीच ‘या अथवा का उपयोग किया जा सकता है। दूसरे ‘या की बात करें तो उसे नाम के पीछे जुड़ा देखा जा सकता है। गांव-गुवाडिय़ों-ढाणियों और कच्ची बस्तियों में नाम के आगे ‘या लगाना चलता आया है। मसलन-कालिया, धोलिया, लालिया, ओमिया, रतनिया आदि-इत्यादि।


दूसरे ‘या का संबंध नजर से। तो हुआ-नजरिया। याने कि जो नजर से निकल कर भाव-विचारों तक पहुंचे वो नजरिया। हर मुद्दे को हर मानखा अपने नजरिए से देखता है। हर आदमी के सोचने का तरीका अलग। कुल जमा इन सब बातों की विश्राम स्थली-वही, जहां से यात्रा शुरू की थी। सब का हिसाब-किताब यही होणा है। हिसाब करने के तौर अलग हो सकते हैं, तरीके अलग। हमने इन सब का हिसाब पंचायत चुनावों से जोड़कर किया। हथाई के पहले पेरेग्राफ में जितने ‘या घुसेड़े गए उन सब का हिसाब-किताब यहीं होणा है।


राज्य में इन दिनों शेष रही पंचायत समितियों के चुनावों का दौर चल रहा है। कैसी विडंबना है कि राज्य सरकार एक ओर जोधपुर, जयपुर और कोटा नगर निगम के चुनाव टालती जा रही है, दूसरी ओर गांवों की सरकार के लिए फुलफुलिए मार रही है। निगम चुनाव टालने के लिए कोरोना का रोना और गांवों में चुनाव ऐसे हो रहे हैं मानों वहां इस वायरस के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा हो। गांवों के प्रवेश द्वार पर बोर्ड टंगे हों- ‘कोरोना का प्रवेश निषेध है। यह पढकर कोरोना उलटे पांव लौट जाएगा। ऐसा होता तो गाइड लाइन जारी करने की जरूरत क्यूं पड़ती। गाइड लाइन में एक बिन्दू यह कि प्रत्याशी किसी के पांव नहीं छू सकेंगे। सब जानते हैं कि चुनावों में गाइड लाइन की धज्जियां उडऩी तय है और उड़ भी रही है मगर हथाईबाजों की नजर पांव पर।


अपने यहां बड़ों के पांव छूकर आशीर्वाद लेने की परंपरा रही है। तो क्या गाइड लाइन उस परंपरा पर प्रहार कर रही है। दूसरा नजरिया कोरोना संक्रमण से बचाने का। जब प्रत्याशी भीड़भाड़ के साथ घर-घर जाकर वोट मांग रहे हैं तो पगै लागणां से परहेज क्यूं। तीसरा नजरिया टीवी सीरियल ‘चिडिय़ाघर के किरदार का, जिस मे वो बाबू जी को दूर से ही पांय लागूं कह के इतिश्री कर लेता है। चौथा नजरिया सारे कदम लडख़ड़ाने का। आप चुनावी क्षेत्रों में जाकर देख लो, वहां ना तो गाइड नजर आएगा ना लाइन। हां, लंगर चलते जरूर दिख जाएंगे। अमल गळता जरूर दिख जाएगा। रही बात पगै लागणा करने की तो वह भी हो रही है। फिर भी हमारी सलाह है कि सरकारी नियमों का पालन करना सब के हित में है। पगै लागणा तो बाद मे ही हो जाएगा।