मन और चित्त की एकाग्रता के द्वारा बनें उपयुक्त : आचार्यश्री महाश्रमण

आचार्य महाश्रमण
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जीवन विज्ञान दिवस के अवसर पर आचार्यश्री ने महाप्राण ध्वनि का कराया प्रयोग

विशेष प्रतिनिधि, छापर (चूरू)। भगवती सूत्र में भगवान महावीर से प्रश्न किया गया कि केवल ज्ञान सम्पन्न साधु प्रणीत मन और वचन को धारण करता है और उनका प्रयोग करता है? उत्तर दिया गया कि हां, वह प्रणीत मन और वचन को धारण करता है और उनका प्रयोग भी करता है। केवलज्ञानी साधु को क्षयोपशम भाव नहीं होता है। जैन तत्त्व विद्या में भाव बनाए गए हैं। जीव का स्वरूप भाव है। पांच प्रकार के भाव बताए गए हैं-औदयिक भाव, औपशमिक भाव, क्षायिक भाव, क्षायोपशमिक भाव और पारिणामिक भाव। केवली को औदयिक भाव, क्षायिक भाव, पारिणामिक भाव होता है तथा औपशमिक भाव और क्षायोपशमिक भाव नहीं होते हैं। केवली प्रणीत मन को धारण करते हैं। यह द्रव्य मन होता है। इसके द्वारा ही देवता अपने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करते हैं। केवली के मन और वचन होते हैं और वे उसका उपयोग करते हैं।

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एक और प्रश्न किया गया कि क्या वैमानिक देवता मन-वचन को जान लेते हैं? उत्तर दिया गया कि जो उपयोगी होते हैं, उपयुक्त होते हैं वे जान लेते हैं। एक बात बताई गई कि उपयुक्त होना। आदमी को उपयुक्त बनने का प्रयास करना चाहिए। मनुष्य यदि उपयुक्त है और उपयोग में लगा हुआ होता है तो वह कुछ प्राप्त कर सकता है। मन और चित्त की एकाग्रता के साथ आदमी किसी बात को, प्रवचन को अथवा ज्ञान आदि को ग्रहण कर लेता है, इस प्रकार वह उपयुक्त और उपयोगी बन सकता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने प्रेक्षाध्यान का प्रणयन किया था। प्रेक्षाध्यान में भावक्रिया की बात होती है। आदमी में भावक्रिया है तो आदमी उपयुक्त हो सकता है। जैसे साधु चलने के दौरान ईर्या समिति के प्रति जागरूक होता है, वह मन और चित्त की एकाग्रता के द्वारा जीव हिंसा से बचता है, इसलिए वह उपयुक्त होता है। इसी प्रकार आदमी को उपयुक्त बनने का प्रयास करना चाहिए। सामायिक के दौरान सांसारिक बातों में नहीं लगना चाहिए, बल्कि पूर्ण एकाग्रता बनाने का प्रयास करना चाहिए और स्वयं को उपयुक्त बनाने का प्रयास करना चाहिए। धार्मिक क्रिया में उपयुक्तता बनी रहे वह अच्छा फल देने वाली हो सकती है।

उक्त प्रेरणादायी मंगल संबोध जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगलवार को आचार्य कालू महाश्रमण समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रदान की। इसके पूर्व आचार्यश्री ने नवाह्निक आध्यात्मिक अनुष्ठान के अंतर्गत लोगों को मंत्र जप का प्रयोग भी कराया। तदुपरान्त साध्वीवर्याजी ने भी उपस्थित जनता को उद्बोधित किया। अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह का दूसरा दिन जीवन विज्ञान दिवस के रूप में समायोजित हुआ। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि जीवन और विज्ञान दो शब्द हैं। जीवन तो सभी प्राणी जीते हैं, लेकिन जीवन किस प्रकार जीना, इसका विशेष ज्ञान होना, यह जीवन विज्ञान होता है। आदमी को अपने जीवन को धर्ममय बनाने का प्रयास करना चाहिए। जीवन में अहिंसा, संयम, साधना का विकास हो दुर्वृत्तियों से दूराव हो। भौतिक और शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक और भावात्मक विकास भी हो, यह अपेक्षित होता है। इस संदर्भ में महाप्राणध्वनि का प्रयोग बताया गया है। आचार्यश्री ने लोगों को महाप्राणध्वनि का प्रयोग भी कराया। मुनि दिनेशकुमारजी ने ‘शिक्षा का नव अभियान होÓ गीत का आंशिक संगान किया। आचार्यश्री की अनुज्ञा से मरुधर विद्यालय में गये मुनि वर्धमानकुमारजी ने अवगति प्रदान की। अणुव्रत समिति-छापर के अध्यक्ष श्री प्रदीप सुराणा ने अपनी अभिव्यक्ति दी। अहिंसा क्रांति अखबार की टीम ने आचार्यश्री के दर्शन कर पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।

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