रोटी-बाटी का जुरमाना

जो लोग ठेठ ग्रामीण परिपेक्ष से जुड़े हैं या कि जिन क्षेत्रों में खाप पंचायतों का फरमान चलता है, उनके लिए कोई नई बात नहीं हैं, हैरत उनके लिए है जिन्होंने देखणे की बात तो दूर ऐसे जुरमाने के बारे में सुना तक नहीं। वो जुरमाने के बारे में तो जानते होंगे, हो सकता है भुगता भी हो, मगर उनके लिए यह पेनेल्टी नई। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

कोई माने या ना माने, अपने यहां जुरमानों की भरमार है। नहीं मानने का सवाल ही नहीं। ऐसा तो है नहीं कि थुपाई की जा रही है। आप से जबरदस्ती ‘हां भरवाई जा रही है। भरवाने और भरवाई की अपनी कायनात है। कई स्थानों पर इनका वर्चस्व है। उनके बिना सबकुछ तो नहीं, काफी कुछ सून नजर आता है। चक्के में हवा नहीं हो तो किस काम का। आपके पास एक अरब की शानदार गाड़ी है। गाड़ी में सारी सुविधाएं है। उसमें किचन है। उसमें निपटनालय है। उसमें फ्रीज है। उसमें एलइडी है। उसमें बार है।

गाड़ी चमाचम। डिलेवर एक्सपर्ट। बैठने वाले टणाटण और अगर गाड़ी के सारे चक्कों में हवा नहीं हो तो किस काम की। ऐसी पैलेस ऑन व्हील का क्या फायदा। एक अरब की गाड़ी सरस डेयरी का बूथ नजर आएगी। चक्कों में जैसे ही हवा भरवाई फरारी ऐसे फर्राटे मारेगी कि हवा की रफ्तार भी शरमा जाए।

यहां हवा भरवाई की अहमियत हुई कि नहीं। इसी प्रकार फीस भरवाई। गोद भराई। खड्डे भराई आदि इत्यादि भी अपनी जगह महान। हर भरवाई का अपना एक स्थान होता है जिसका काल-समय-परिस्थिति और जरूरत के अनुसार उपयोग किया जाता रहा है। जहां रस्म अदा की जाती हो, की जाती है। जहां एच्छिक हो, वहां एच्छिक और जहां जरूरी हो, वहां नो इफ नो बट। कई बार नियम-कानून की अवहेलना करने पर जुरमाना भरना पड़ जाता है। यह भराई सबसे सूगली।

अपने यहां ऐसा करने की प्रथा सी है। हमें नियम-कानून की अवहेलना करने में मजा आता है। आजादी के नाम पर हम लोग नंगे हो गए। आजादी के माने ये नहीं कि नियमों की बखिया उधेड़ दो। हम ने पहले भी कहा था। आज फिर दोहरा रहे है। आइंदा भी दोहराते रहेंगे कि अपन ने आजादी का मोल नहीं समझा। हम भूल गए कि मां भारती को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए पुरखों ने कितना त्याग किया।

कितना बलिदान दिया। क्या-क्या नहीं खोया। बहुत कुछ खोणे के बाद हमें आजादी मिली, मगर हम उस की कदर नहीं कर रहे। आजादी के नाम पर नंगाई पे उतर गए। अधिकार तो याद रख लिए मगर कत्र्तव्यों से मुंह मोड़ लिया। हम ने इस बारे में भी कई बार लिखा। कई बार कहा, मगर ज्यादातर लोगों पे रत्ती भर भी फरक नहीं पड़ा। जो लोग जागरूक हैं। जो अधिकारों के साथ-साथ अपने फर्ज भी निभा रहे हैं, उन्हें कक्के का पूणिया समझाने की जरूरत नहीं भतेरे लोगों ने जुरमाना भरने के बावजूद ”हम नहीं सुधरेंगे की कसम उठाई हुई, लगती है।

बात घूम-फिरकर जुरमाने पे आ गई। आ गई या ले आए यह अंदर की बात है। बाहर की बात ये कि अपने यहां जुरमाने की जमीन खासी मजबूत है। इनका बिणाव-सिणगार अलग-अलग हो सकता है। कहने का अंदाज अलग-अलग हो सकता है। लेट फीस कह दो या पेनेल्टी है तो जुरमाना। इतने जुरमाने कि मानखा भन्ना जाए, इसके बावजूद किसी की सेहत पे कोई फरक नहीं पड़ रहा। लोग जुरमाना भर देंगे मगर नियम कानूनों पर चलने में हेटी समझते हैं। वो यह नहीं सोचते कि नियम की पालना करने में हेटी नहीं लगती वरन समझदारी झलकती है। समझदारी इंसान और पशुओं में भेद जाहिर करती है। जीते तो सभी हैं।

यातायात नियम तोडऩे पर जुरमाना। बेटिकट यात्रा करने पर जुरमाना। समय पर फीस या बिल जमा ना करवाओ तो जुरमाना। सार्वजनिक स्थानों पे सुटठा मारते या छल्ले उड़ाते पकड़े जाओ तो जुरमाना। यहां तक तो ठीक है। आज हम डिजिटल युग में विचरण कर रहे हैं। इक्कीसवीं सदी में भ्रमण कर रहे हैं। ऐसे में रोटी-बाटी के जुरमाने की बात पर शरम सी महसूस होती है। अपने यहां जातिगत और खाप पंचायतें समानांतर शासन चलाती रही है। वहां से निकला आदेश मानना जरूरी वना जुरमाना रूपी दंड तैयार। कबूतरों को जंवार और गायों को चारा तक तो ठीक है रोटी-बाटी का जुरमाना पच नहीं रहा।

इस नए जुरमाने की चेतावनी किसान यूनियन के कतिपथ नेतों ने दी है। उनका कहना है कि यदि किसी ने अपने यहां भाजपा के किसी नेता को किसी अवसर पर न्यौत लिया तो उस पर सौ लोगों के भोजन का जुरमाना ठुकेगा। याने कि अब हाड़तोड़ मेहनत करने वाला किसान जुरमाने की रोटी खाएगा? हथाईबाजों को ना ऐसी रोटी पंसद आई ना बाटी ना साक। स्वाभिमानी किसान भी ऐसी रोटी खाणा पसंद नहीं करेगा। लिहाजा हथाई पर ऐसे जुरमानो का फतवा खारिज।