पार्षद.. पति.. और दलाल..

अगली खाई तो खूटी ही नही कि पुरसगारी फिर हो गई। यहां तो पहले से ही ‘डाचके आ रहे थे कि नई नियुक्तियों की सिफारिश सामने आ गई। भाईसेणों का फिर वही राग। फिर वही खटराग कि जब अंदरखाने सब कुछ हो रहा है तो उसे बाहरखाने में लाने में हर्ज ही क्या है। इसका फायदा ये होगा कि छुपम छुपाई बंद। सब कुछ पारदर्शी। कौन लेता हैं-कौन देता है। कौन-कितनी लेता है। कौन कितनी देता है। सब का हिसाब वेबसाइट पे। जिसे-जब देखना है, देख सकता है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

हमने दो-तीन दिन पहले ‘घूसाधिकारी शीर्षक से छपी हथाई में सरकारी विभागों में ऐसे अफसरों-कार्मिकों की भर्ती की राय दी थी जो रिश्वत-घूस का हिसाब-किताब रख सके। इसके लिए हम ने भर्ती प्रक्रिया से लेकर कार्य का बंटवारा तकातक कागजों में कर दिया था। यहां एक बात गौर करने लायक है कि कागजी सच्चाई और जमीनी हकीकत में खासा फरक है। इसे जानने वाले ही जान सकते हैं। हमने भतेरे काम सिर्फ-ओ-सिर्फ कागजों में होते देखे। हमें दिख तो गए। कई लोगों को उनके भी दीदार नहीं होते। हमने कागजों में सड़क बनी देखी। हमने कागजों में मिट्टी उठी देखी। हमने कागजों में तामीर खड़ी होती देखी। हमने कागजों में इमारतों की मरम्मत देखी। हमने कागजों में टनों-टन कचरा उठते देखा।

हमने कागजों में पौधे रोपते देखें। देग के चावल के बतौर पौधारोपण को ही ले लीजिए। सरकारें पौधारोपण पर हर साल करोड़ों-करोड़ रूपए खरच करती है। इसके लिए खड्डे खुदते हैं। पौधों की खरीद होती है। उनका वितरण होता है। रोपण के लिए समारोह-जलसे होते हैं। ट्री गार्ड और झारों सहित अन्य औजारों-खुरपियों की खरीद होती है। तगारी-फावड़ा-गेतियां और दीगर सामान के टेंडर होते हैं। यदि उन पौधों का वाकई में रोपण होकर रखरखाव किया जाता तो आज देश की जनसंख्या से चालीस गुणा ज्यादा पेड़ होते। गली-गुवाड़ी से लेकर टोले-मौहल्ले हरे-भरे होते। सूरज के दर्शन करने के लिए ‘तिपड़े पे चढना पढना। धूप सेंकने के लिए ‘डागळे पे जाकर बैठना पड़ता। पण ऐसा कुछ हुआ दिखाई हीं दिया। सारी कार्रवाई कागजों में ही हुई।

एक और चावल रेत के रूप में। राज्य के सरहदी क्षेत्रों बाड़मेर-जैसलमेर और बीकानेर में रेतीली आंधी चलना आम बात है। कई बार मुख्य सड़कों पे टीले लग जाते हैं। उनको हटाने के ठेके होते हैं। बकायदा निविदाए मांगी जाती है। टेंडर उठते हैं। ठेके दिए जाते हैं। होता-जाता कुछ नहीं और भुगतान उठ जाता है। सड़कों पर टीलाराज कायम रहने पर ठेकेदारों के जवाब हाजिर-‘रेत वापस आ गई तो हम क्या करें।

उसे हटाने के नाम पर फिर खरचा। यह कौन करता है-कैसे करता है। जानने वाले जानते हैं-शंभो सब देख रहा है। अगर घूस विभाग अलग से स्थापित किया जाकर स्टाफ और अधिकारी लगा दिए जाते तो गेंद शासन-प्रशासन के पाळे में रहती। सरकार को राजस्व मिलता। कायदे से घूस दो और काम करवाओ। देने वाला भी राजी और शासन भी राजी।

हथाईबाजों ने देखा कि उनके द्वारा दी गई वो सलाह हवा में ही और रही थी कि कई और रायचंदसा परगट हो गए। ऐसे सलाहसिंघ चारों तरफ मिल जाएंगे। टोले-मौहल्ले से लेकर चौक-चौबारों और यहां तक कि घर-घर में मिल जाएंगे। मश्विरानंदों के पास एक से बढकर एक-आले से आले मश्विरे मिल जाएंगे। कोई ना मांगे तो भी तैयार। कोई भले ही इसे फट्टे में टांग अड़ाना कहे, उन्हें कोई परवाह नहीं। उनकी सेहत पे कोई फरक हीं पडऩे वाला। उन्हीं की सलाह है कि अफसरों-करमचारियों और जन प्रतिनिधियों के साथ-साथ उनके परिजनों को भी घूस वसूलने का अधिकार देना चाहिए। उनकी यह भी राय है कि इसके लिए दलाली प्रथा का भी नियमन कर देना चाहिए या कि लाइसेंस प्रणाली शुरू कर देनी चाहिए।

यह सलाह भी यूं ही नहीं उपजी बल्कि इसके पीछे जनप्रतिनिधियों के परिजनों का पूरा हाथ। कभी सरपंच का बेटा घूस लेते पकड़ा जाता है तो कभी नपा अध्यक्ष का पति। कई मामले में घूस एजेंट भी सामने आए। हवा अजमेर से आई। वहां एक महिला पार्षद के पति ने निर्माण के एवज में एक बंदे से पचास लाख रूपए मांगे। सौदा चालीस लाख में तय हुआ। पतिदेव ने घूस एजेंट को आगे कर दिया।

वह दो लाख रूपए पेशगी ले रहा था तभी एसीबी ने धर लिया। अब पार्षद के पतिदेव फरार। कांड में पार्षद की लिप्तता की जांच की जा रही है। अगरचे दलाल प्रथा को मान्यता मिल गई होती तो खामखा हंगामा नही होता। घूस विभाग और घूसाधिकारी के अभाव में पार्षद पति और दलाल शीर्षक लटक गया तो हमारा क्या दोष है। इसका शार्टफार्म पीपीए भी किया जा सकता है। ‘पी बोले तो पार्षद। ‘पी बोले तो पति और ‘ए बोले तो एजेंट। इस बारे में आपका क्या खयाल है।

यह भी पढ़ें-राक्षसियत