दिन-दिना-दिन-दिन

शीर्षक को लपेटें तो क्या बनेगा-आप देख सकते हैं। ये-वो सब आजमा सकते हैं। जो होगा, सामने आ जाएगा। नो छुपम-नो छुपाई। हम ऐसा कोई काम नहीं करते जिसमें लुकाछुपी खेलनी पड़े। खुल्ला खेल खिलाड़ी का। मैदान साफ है। जो चाहे-जब चाहे शीर्षक को समेट के देख सकता है। कोई जहमत ना उठाना चाहे तो यह काम हम किए देते हैं। भतेरे काम कर भी दिए। कर रहे हैं और ता-जिंदगी करते रहेंगे। जिंदगी भर से मतलब ये कि जब तक हाथ-पांव चलते रहेंगे। कारवां-काफिला चलता रहेगा। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

लपेटने-समेटने के अपने अर्थ होते हैं-अपने मायने होते हैं। अपने यहां ज्यादातर लोग धराधरी करने में माहिर माने जाते हैं। माने क्या जाते, होते हैं। उनसे बागर चौक में खड़े होकर मेहरानगढ़ किले की प्राचीर पर कागज की पुडिय़ा फिकवा लो। मजाल पड़ी जो रास्ते में कही रूक जाए। चील-बाज पंजे में फंसा कर ले जाने की कोशिश करे तो भी कुछ होणे वाला नहीं। धरूमल उन्हें भी पुडिय़ा के साथ घसीट लें।

ऐसे लोगों की जोड़ी लपेटने वालों के साथ खूब जमती है। मोटा भा ‘ सा धरते हैं.. छोटा भा ‘सा लपेटते हैं। देखने-सुनने वाले दर्शक-श्रोता उनसे भी चार कदम आगे। उनने दोनों किरदारों को मिलाकर फिलिम बनाने की तेवड़ ली। लाईट.. कैमरा.. एक्शन.. होगा तब होगा फिलहाल नामकरण तो कर ही दिया-‘तुम धरो-हम लपेटे।

लपेटने की डोर हुचकी-हुचके और गिड़गिडी से भी जुड़ी हुई। इन तीनों का नाता पतंगबाजी से जुड़ा हुआ। यदि आप ने पतंगबाजी की है तो डोर-मांझा लपेटने के बारे में बखूबी जानते होंगे। किसी ने पतंग ना उड़ाए हों, ऐसा हो ही नहीं सकता। बाय द वे ऐसा हो गया हो तो उन्हें ऐसा कर लेना चाहिए। कारण ये कि इंसान का बचपन और बचपना कभी समाप्त नहीं होना चाहिए। ऐसा हमारा मानना है।

हमारा तो यहां तक मानना है कि जिस दिन मानखे का बचपन थम गया उस दिन समझ ल्यो काफी कुछ थम गया। उस दिन से सब कुछ थमा-थमा सा लगना महसूस होने लगेगा। हमने कंचे खेले। काणी गुप्पी खेली। आंधणघोटा खेला। गुल्ली-डंडा खेला। मालदड़ी खेली। झुरनी खेली। छुपम-छुपाई खेली। पकड़मपकड़ाई खेली। बचपन के सारे खेल खेले। अब भी मौका मिल जाए तो पीछे रहने वाले नहीं।

हम ने ऐसे लोग भी देखे जो गली गुवाड़ी में खेलते बच्चों को भगा देते हैं। कोई शोर होने का राग आलापता है, तो नुकसान हो जाने का अंदेशा जताता है। अरे भाई बचपना पड़ा कहां है। अभी कोरोनाकाल के चलते बच्चे घरों में कैद हैं। जो ऑनलाइन पढ रहे हैं वो पढ रहे हैं। कोई नेट में मस्त तो कोई एफबी और वाट्सएप-मोबाईल में।

स्कूले खुलने पर वही टैक्सी। वही सर-मैडम। वही होम टास्क। वही कोचिंग। वही ट्यूशन और वही एक्स्ट्रा क्लासेज। बच्चा चक्करघिन्नी बना नजर आता है। लिहाजा हमारा आप सब से आग्रह हैं कि उनसे उनका बचपन मत छीनो। उन्हें शरारतें करने दो। खेलने दो। कूदने दो। धमाल मचाने दो। हो सके तो उनके साथ बच्चे बन जाओ..। देखना कितना आनंद आता है। सनद रहे कि बच्चों की शैतानियां नादानियों तक सीमित रहे। खाल से बाहर निकलने की कोशिश करें तो जंतर भी जरूरी।

बात करें समेटने की तो बिखरा सामान समेटा जाता है। बिगड़ा काम समेटा जाता है। बात बिगड़ जाए तो समेटी जाती है। शादी-ब्याह-आणे-टाणे के समारोह निपटने के बाद सिमटा-सिमटी का दौर चलता है। पूरी टीम काम सिमटाणे में लगी रहती है। बात शीर्षक रूपी शब्दों की चली तो उसे भी समेटना जरूरी। ऐसा किया तो बनेगा-‘दिनदिनादिनदिन। इसका लब्बोलुबाब निकाला जाए या इसकी गांठे खोल कर एक शब्द में परोसा जाए तो निकलेगा-‘दिन। यह दिन सोम-मंगल-बुध-बीरवार- वाले नहीं, वरन वो जो पिछले लंबे समय से छलकाए जा रहे हैं।

किसी में चमचागिरी की बू तो किसी में हौडाहोड गोडा फोडऩे की झलक। चमचागिरी में सियासतबानों के चहेते सब से आगे। उन्हें खुद के पिता का जनमदिन याद नहीं और पार्टी के आका का जनमदिन ऐसे मना रहे हैं मानों वो दुनिया का पहला ऐसा बंदा हो जिसने जनम लिया। हम-आप तो आकाश से टपके हैं या जमीन से निकले हुए हैं। उन्हें खुद के दादू-नानू की पुण्यतिथि याद नही और पार्टी के आका के नानू की बरसी पे गुलपोशी कर रिए हैं। घर में बैठी बहन अपनी बर्थ-डे पर केक का इंतजार कर रही है और सियासत भाई पार्टी नेते की बर्थ डे का केक काट कर उसकी तस्वीर को चुपड़ रहे हैं।

हथाईबाज दिन-दिनों पे पश्चिमी हवा का साया भी देख रहे हैं। कई श्रवण कुमारों ने अदीतवार 20 जून को फादर -डे मनाया। सोशल मीडिया पे ऐसे जुमले उछाले मानों उनके जैसा दूसरा कोई आज्ञाकारी पुत्र दुनिया में है ही नहीं। उनसे पूछो-ये फादर डे कहां से आया भाई। हमने तो ऐसे चोंचलें पहले कभी नहीं देखे। मां-बाप-दादा-दादी-नाना-नानी के ‘डे ‘ज हम ने तो कभी नहीं मनाए। हमने तो रोज-डे-वेलेंटाइन डे फ्रेंडशिप डे का झपका भी नहीं पडऩे दिया। और ये दिवाने पच्छम की हवा में उड़ रहे हैं। यह सब नाटक देख के हथाईबाज हैरत मेंं। फिर भी कह रहे हैं कि जिसे जो दिन-डे-वीक मनाना है सो मनाए पर इत्ता जरूर बता दे कि यदि सारे के सारे बेटे श्रवण कुमार हैं तो वृद्ध आश्रम फुलमफुल क्यूं है। वहां बाकी के दिन काट रहे आई-बाबा के चेहरे की हंसी गायब क्यूं है। बेहतर तो यह होगा कि फालतू के नाटक करने की बजाय घर के बुजुर्गों की वाकई में सेवा की जाए। सेवा के लिए ना किसी दिन का इंतजार करने की जरूरत है ना दिन-दिना-दिन-दिन का।

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