धाणा-मेथी में फरक

उनने पूछा। डंके की चोट पूछा। सार्वजनिक तौर पे पूछा। सब के सामने पूछा। जरूरी नहीं कि उस पूछापूछी का कोई सकारात्मक परिणाम सामने आए। वो जवाब दें या ना दें, मरजी उनकी। पूछताछ के दे भी दिया तो कौनसे नंबर घटने-बढने हैं। आप को उन्हें सिर पे बिठाना नहीं और उन्हें उनको सिर से उतारना नहीं। फिर आप कोई पहले व्यक्ति तो हैं नहीं जो उनसे सवालों के जवाब चाह रहे हैं। इससे पूर्व भी कई सवाल आए थे। उनका जवाब भी नहीं आया तो इसकी उम्मीद करना बेमानी है। आया, और धनीराम-मेथी बाई कह दिया तो कौन क्या बिगाड़ लेगा। वो अपनी गैंग के सुप्रीमों थे-हैं और रहेंगे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे के चर्चे हो रहे थे।


पूछना और बताने का रिवाज पुरातनकाल से चला आ रहा है। पूछ सागर और बता सागर खासे लंबे-चौड़े हैं। पाताल तोड़ भी। वैसे, अपने यहां कुओं को पाताल तोड़ कहा-समझा जाता है। पाताल तोड़ के माने इतना गहरा कि पानी कभी खतम नही होता। जो पानी खींचा या सींचा जाता है, चौबीस कलाक में उतना वापस आ जाता है। ऐसे कुओं में सीरें चलती है। जिनसे पानी निकलता रहता है। उसी की वजह से अंदर के पानी का लेवल कभी नही गिरता। बाय द वे गिर भी जाए तो दो चार घंटो में स्थिति यथावत।


पूछना की अपनी दुनिया-बताना की अपनी कायनात। दोनों एक-दूसरे के पूरक। एक के बिना दूसरा अधूरा। कई बार दोनों में ‘कुट्टी भी हो जाती है। जहां तक हमारा खयाल है, ‘कुट्टी के बारे में ज्यादा गांगत गाणे की जरूरत नहीं। बच्चा लोग ‘कुट्टी-अप्पा की रस्म निभाते रहे हैं। एक पल में ‘कुट्टी दूसरे पल में ‘अप्पा।

बचपने में हम-आप ने भी कह परंपरा बखूबी निभाई थी। देश-दुनिया में ऐसा कोई बंदा नही जो बचपने में इस परंपरा से परे रहा हो। कभी स्कूल में कुट्टी तो कभी टोले-मौहल्ले में अप्पा। कभी-गुवाड़ी में अप्पा तो कभी खेल के मैदान में कुट्टी। हम-आप भले ही उस दौर से कभी के गुजर गए मगर बच्चा लोग आज भी वो रस्म निभा रहे हैं। आने वाली सदियों में भी ऐसा चलता रहणा है। कुट्टी के माने बोलचाल बंद और अप्पा के माने वापस दोस्ती। कई बार बच्चा लोग गरजें खा कर दोस्ती कर लेते हैं। कई बार अन्य साथी बीच में पड़कर समझौता करवा देते हैं। बचपने की ‘कुट्टी अप्पा ज्यादा समय तक नहीं चलने वाली।

अगर बड़ों में ऐसी नौबत आ जाए तो ऐंठ ऐसी बनती है कि ना वो झुकने को तैयार ना ये। दोनों पक्ष अमचूर की तरह अकड़े हुए। उन्हें बच्चों से प्रेरणा लेनी चाहिए। मगर ऐंठ और अहम आड़े आ जाता है। पूछ में कुछ तो क्या, काफी कुछ है तभी तो दिवाने ने लूर ले ले के सुर लहरियां बिखेरी थी-‘पूछे जो कोई मुझसे.. बहार कैसी होती है.. नाम तेरा ले के कह दूं बहार ऐसी होती है..। पूछ बोले तो पूछना।

पूछ बोले तो पूछ। इस पूछ और उस पूछ में खासा फासला है। एक पूछ वो जो थान.. देवरों पे की जाती है। योग्य इंसान की पूछ सब जगह होती है। काबिल इंसान की पूछ काबिल इंसान ही कर सकता है। जहां पूछ नहीं होती, वहां जाणा ‘इज नहीं। कोई मुझसे पूछ के देखे, फिर बताता हूं उन्हे.. सरीखे कई जुमले आम हैं। इन में दम दमादम दम भी है। अगर चार लोगों के बीच कोई बावळिया बैठ जाए तो भाईसेण मुंह मोड़ लेते हैं, और अगर कोई योग्यजन बैठ जाए तो उसकी पूछ होती है। एक जमाने में भारत को कई देश ज्यादा भाव नहीं देते थे, आज विश्व में हमारी पूछ है। भारत की धाक है।


एक पूछ की पूंछ-पूछना से जुड़ी हुई। पूछना माने पूछना। पौंछना अलग और पूछना अलग। पौंछना माने बरतन-भांडे पौंछना। कप-प्लेट-गिलास-कॉकरी पौंछना। खिडकियां-आडे पौंछना। टेबल-कुरसी पौंछना। फर्श-दीवार पौंछना। पूछना की जड़े यहां से लेकर ठेठ वहां तक फैली हुई। सवाल पूछना। पता पूछना। समय पूछना। टेसण-बस अड्डो और कई सार्वजनिक स्थलों पर पूछताछ केंद्र बने हैं। अस्पताल में इंक्वायरी सेंटर पे पूछताछ करके आप अपने मरीज रिश्तेदार से आराम से मिल के आ सकते हैं, वरना एम्स जैसे बड्डे-बड्डे अस्पतालों में घूमते रहो। बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर गाडिय़ों के आने-जाने के बारे में पूछताछ की जा सकती है। सवालों की पूछताछ तो अनंत। क्लास रूम से लेकर परीक्षा केंद्र तक सवालों की पूछताछी। सवाल परीक्षा पास करने के साथ ज्ञान का पैमाना नापने के लिए भी दागे जाते हैं। सदन में आदरजोग जनप्रतिनिधि सवाल पूछते हैं।


पर हथाईबाज जिस पूछताछी की बात कर रहे हैं, उनका जवाब मिलना जरूरी नहीं। कही से टीपटाप के बता दें तो कह नही सकते, वरना जवाब देना उनके बस की बात नहीं। उनके लिए आलू-कांदे की फैक्ट्री और गोली-बिस्कुट की फैक्ट्री में कोई फरक नहीं। उनका बस चले तो रोटी की फैक्ट्री लगा दे।


मध्यप्रदेश के सीएम मामा शिवराज सिंह ने किसान आंदोलन को समर्थन देने पर कांग्रेस के सुप्रीमों राहुल गांधी से सवाल पूछा कि वो धनिया और मेथी में फरक बता दें तो मान जाएंगे कि उन्हें किसानों-बागवानों के बारे में कुछ जानकारी है। असल में ऐसा है नहीं। राहुल ठहरे विरासतवादी राजनीतिज्ञ। उन्हें पकी-पकाई मिली और मिल रही है। वो बथुआ-पालक का अंतर नही बता सकते। वो आलू की फैक्ट्री लगा सकते है। वो सदन में आंख मार सकते है। वो अपनी पारटी में थानेदारी दिखा सकते हैं। वो चुनाव हरवा सकते है। वो हर चुनाव के बाद थाकेला उतारने के लिए विदेश जा सकते हैं। वो नई संख्या ‘पचत्तीस का ईजाद कर सकते है। धाणा-मेथी में अंतर बताना उनके बस की बात नहीं। धनिया उनके लिए किसान का नाम और मेथीबाई उसकी पत्नी का नाम। और कुछ पूछना है?