गुड़ भी खाओ और गुलगुले भी

आखिर वही हुआ, जिस की संभावना पहले ही जता दी गई थी। जानकार लोग जान गए थे कि यह फां..फूं.. दिखावटी है। मानकर लोग मान गए थे कि यह कदम टाइम पास के अलावा कुछ नहीं। अब उस की ताईद भी हो गई। देश के आदरजोग सबसे बड़े कोर्ट ने भी कह दिया कि गुड़ भी खाओ और गुलगुले भी। वापसी हुई भी तो हफ्ते-दो हफ्ते का समय और मिल जाणा है। कुल जमा सच्चाई का सामना तो करना ही पड़ेगा। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


बाकी सब तो पच गया होगा, मानकार और जानकार पर तनिक अचकच हो रही होगी। जानकार पर भी कोई असमंजस नहीं, मानकार पर है, तो उसे भी दूर कर देते हैं। जानकार के माने-जानने वाला। जो किसी व्यक्ति या वस्तु विशेष के बारे में पूरी जानकारी रखता हो, उसे जानकार कहते हैं। अपन लोग भी आम चलन में इसका उपयोग करते आए हैं। मैं फलांचंदसा को जानता हूं..। ढीमकाचंदजी मेरे जानकार है। जानता का साथी पहचानता। पहचानने का अर्थ गूढ़। पहचानने के माने अगली पार्टी के बारे में सब कुछ अथवा काफी कुछ जानना। ना केवल जानना बल्कि टेम आए तो पहचान भी करना। भतेरे लोग ऐसे हैं जो आप को जानते हैं। अगणित लोगों को हम जानते हैं। हम-आप को कई लोग जानते हैं। हम-आप कई लोगों को जानते होंगे मगर पहचान के बारे में हाथ जरा तंग। पहचान और पहचानने की परिभाषा गहरी है। जो इस के बारे में समझता है, वही समझता है। पहचानने के माने सामने वाले का व्यक्तित्व, कृतित्व। उनकी आदते-स्वभाव। कार्य प्रणाली। चाल-चरित्र और चेहरा कैसा है। वह पड़ोसी हो या रिश्तेदार या कि सहकर्मी अथवा मिलने वाले। संकट के समय उनकी पहचान हो जाती है। जानने वाले कई मिल जाणे हैं, पहचान-परख में पास होने वाले अंगुलियों पर गिने जितने। यह तो हुए जानकार और बात करे मानकार की तो हिंदी की डिक्शनरी में इसका समावेश हमी ने किया है। समावेश हुआ या नहीं, हमने उसका लोकार्पण तो कर दिया। मानकार वो, जो मानता हो। मानकार वो, जो माने। जानने वाले जान गए थे और मानने वाले मान गए थे कि गुड़ खाए और गुलगुले से परहेज का नाटक ज्यादा दिन चलने वाला नहीं। सियासी गुड़ और गुलगुले तो ताम ‘इ नहीं चलने वाले। कोशिश तो की थी मगर कामयाबी नही मिली। अब हाईकोर्ट कोई राहत दे दे तो ठीक वरना आ जाओ मैदान में।


हथाईबाजों का इशारा राज्य के तीन शहरों के छ: नगर निगमों के चुनावों की ओर। इनमें दो निगम जोधपुर के। दो जयपुर के और दो कोटा के। पिछले दिनों राज्य में लगभग सभी स्थानीय निकायों के चुनाव हो गए जबकि इन तीनों का कार्यकाल पिछले साल नवंबर में समाप्त हो गया। वहां के आयुक्त प्रशासक के रूप में कार्य कर रहे हैं। सरकार चाहती तो इनके चुनाव भी समय पे हो सकते थे मगर लटका दिए गए। यह बात समझ के बाहर कि जब सारे निकाय निपट गए तो इनसे परहेज क्यूं। निकाय आम चुनावों में हांलांकि सत्तारूढ़ कांगरेस को उतना फायदा नही हुआ जितने की उम्मीद उसने लगाई थी। बीकानेर नगर निगम पर भाजपा का फिर काबिज हो जाना सरकार के लिए झटका था, लिहाजा तीन बड़े शहरों के चुनाव टाल दिए गए बाद में कोरोना के चलते ढाई-तीन महिने की घरबंदी हो गई और अब सरकार ने कोरोनाकाल की आड़ लेकर राजस्थान उच्च न्यायालय में दरख्वास्त दी कि चुनाव करवाने के लिए समय दिया जाए।


राज्य सरकार के इस कदम को खांटी हथाईबाज भांप गए कि विपक्ष वाले ठीक कह रहे हैं। उनका आरोप था कि सरकार चुनावों से भाग रही है। हथाईपंथियों ने भी इस की पुष्टि की। कानून का सहारा लेने का अधिकार सब को है। पर जानने वाले जान गए थे-मानने वाले मान गए थे कि सरकार को राहत मिलने वाली नही है। सरकार की ओट कोरोनाकाल थी जबकि इन दिनों बाकी बची ग्राम पंचायतों के चुनाव धूम-धड़ाके से हो रहे हैं। राज्य में बोर्ड की पूरक परीक्षाएं हुई। जेईई सहित अन्य कई प्रवेश परीक्षाएं हुई तब सरकार को कोरोना का खतरा दिखाई नही दिया और निगम चुनाव पर खतरा मंडरा गया। हथाईबाजों की सोच के अनुरूप राजस्थान उच्च न्यायालय ने सरकार की अरजी खारिज कर के 31 अक्टूबर तक चुनाव करवाने का फरमान जारी कर दिया। सरकार ने इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की शरण ली तभी हथाईबाजों ने कह दिया था कि वहां भी दाल नही गलणी है। आखिर हुआ भी वही। अलबत्ता इतना राहत जरूर दी कि वापस हाईकोर्ट जाकर तैयारियों के लिए कुछ दिन की मोहलत मांग सकते हो।


हथाईबाजों के साथ-साथ पूरा राजस्थान देख रहा है कि सरकार ने गुड़ तो आरोघ लिया और गुलगुलों से परहेज का नाटक किया। सुप्रीम कोर्ट ने उस नाटक से भी परदा उठा दिया। सरकार अब अगर वापस हाईकोर्ट जाती है तो हो सकता है हफ्ते-पंद्रह दिन की मोहलत मिल जाए। नही मिली तो मूंछ पे चावल रख कर कबूली खाने का उपक्रम तो करना ही पड़ेगा।