पढ़े-लिखे मूरख

पहले शक था, अब इस बात की ताईद हो गई कि अपने-आप को पढा-लिखा कहने-समझने वाले भी मूरख होते हैं। ‘भी की जगह ‘ही कर दिया जाए तो किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए। अगर किसी को कोई आपत्ति है, तो दर्ज करवाई जा सकती है। समय आने पर उसका निवारण कर दिया जाएगा। फिलहाल वो-‘आधी रहे ना पूरी पावे की तख्ती गले में डालकर घूम सकते है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

ऊपर के पेरेग्राफ में खासकर दो धाराएं फूटती नजर आती हैं। हो सकता है, इसमें भी नजर-नजर का फेर हो। नजर की अपनी नजर है.. नजर का अपना नजरिया है। जिस की सोच-नजर और नजरिया सकारात्मक हो उसे हर चीज-वस्तु में खरापन दिखाई देगा और जिस की नजर में ही खोट हो। जिसके विचार ही मैले हों। जिस की नजर और नजरिया ही घटिया हो, उसे हरेक वस्तु वैसी ही लगती है। जैसी नीति-वैसी नियत। जैसी नियत-वैसी बरकत। स्याणे लोग किसी के बोलने भर से पहचान लेते हैं कि उसमें कैसे संस्कार हैं।

विचार-नजर और नजरिया प्रकट होने पर संस्कारों की पुष्टि हो जाती है। आचार-विचार और नजर-नजरिए का खुलासा हो जाता है कि धारा किस तरफ मुड़ रही है अथवा किस ओर मुडऩे वाली है। पहली धारा की बात करें तो ‘भी और ‘ही मुख्य केंद्र बिन्दू में और दूसरी धारा का बहाव लालच की ओर जाता दिखाई देता है। आधी रहे ना पूरी पावे.. सुनते-पढते ही उनने लाइन कंपलीट कर दी-‘आधी को छोड़.. पूरी ध्यावै आधी रहे ना पूरी पावै..। इस पर कई कहानियां लिखी गई। पोथियां पुस्तकें लिखी गई। संतजनों ने प्रवचन दिए। मौलवियों ने तकरीरें की। लालची कुत्ता और लालची चिडिया वाली कहानी इतनी बार पढी-सुनी कि आज भी कंठस्थ है। हम ऐसे अकेले-इकलौते नहीं। भतेरे लोगों को ये कहानियां याद है। यकीन ना आए तो बाळू काका से पूछकर देख लेना। इन दिनों वैसे भी पुराना दौर दौरा चल रहा है।

कोरोना ने कई इतिहास दोहरा दिए। एक जमाने में पूरा परिवार इक्कठ्ठा होकर खेला करता था। कभी अंत्याक्षरी तो कभी नृत्य-नाच। कभी स्कूली किस्सों का वाचन-कभी दुकान-दफ्तर के खटके। बुजुर्ग लोग अपे बखत के किस्से और कहानियां सुनाया करते थे। कभी वीरों की-कभी शूरवीरों की। कभी परियों की-कभी चंदा मामा की। हर कहानी के पीछे कोई ना कोई शिक्षा जरूर छुपी होती। लालच बुरी बला है से जुड़ी कहानी का जिक्र होते ही लालची कुत्ता आंखों के सामने घूम जाता। कभी लोभी चिडिया की तस्वीर सामने आ जाती। ऐसा लगता है मानो ये दोनों किरदार लोभ-लालच के एंबेसेडर बन गए हैं।

इन दिनों कोरोना के कारण मिनी लॉकडाउन के हालात है। बाजार और दफ्तर शाम चार बजे के बाद बंद। चार-साढे चार-पांच बजे तक मानखा रूपी परिंदे अपने-अपने घर-घरोंदो-घुसकाळियों में। दादू-दादी साथ हों तो उनसे लालच बुरी बला है विषय पर कहानी सुनाने का आग्रह कर के देख लेना। जवाब में या तो कुत्ते वाली कहानी दोहराई जाएगी-या फिर चिडिय़ा वाली। अंत में सीख ये कि हमें लालच नही करना चाहिए मगर सच तो यह है कि चाहे कितने ही प्रवचन सुणा द्यो। चाहे कितनी ही कहाणियां सुणवा द्यो। चाहे कितने ही उदाहरण दे द्यो। चाहे कितनी ही तकरीरें कर ल्यो। मानखे का मन लोभ-लालच में फंस ही जाता है। कभी ना कभी-कही ना कहीं वो ठग्गू के लड्डू के झांसे में आ ही जाता है।

हम जानते हैं कि ठगी-दगा करना अपराध की श्रेणी में आता है। नटवरलाल संप्रदाय के लोगों पर चारसौबीसी का मुकदमा दर्ज होता है। किसी को ठगना या किसी के साथ ठगी करना कानूनन अपराध है। इसको पलट के देखें तो यह कई लोगों का धंधा भी है। ठग्गू के लडडू हर कोई नही बेच सकता। जो खाता है, उसको चूना लगणा तय। फिर भी लोग जीमणे से बाज नही आते। इन सब के पीछे लालच छुपा नजर आता है। इंसान की लालची प्रवृति दिखाई देती है। आप सोचिए कि यदि किसी के पास धन-गहने दुगुने करने की कला-विधि होती तो वो गली-गुवाड़ी क्यूं डोलते। खुदी का धन डबल कर देते।

हथाईबाज देख रहे हैं कि ठग्गू के लड्डू पिछले दिनों से कुछ ज्यादा ही बिक रहे हैं। कहीं बैंक अधिकारी के नाम पर ठगी तो कहीं लॉटरी ईनाम के नाम पर। इधर खाता नंबर बताए और उधर खाता साफ। ठगी के शिकार अनपढ-भोले या गवार लोग हो जाएं तो समझ में आता है। यहां तो डॉक्टर्स। टीचर्स और लेक्चरार ठग्गू के लड्डू जीम रहे हैं। मूरख की छोड़ों-यहां तो पढे-लिखे शीशी में उतारे जा रहे हैं और वो आराम से उतर रहे हैं। वाह रे, पढे-लिखे मूरखों..। ऐसे लालचियों को ‘मूरखालॉजिस्ट से नवाजना चाहिए।

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