पढ़े-लिखे मूरख!

ऐसा पहली बार नही हुआ। कई बार हो चुका है। बार-बार घट चुका है। वैसा होते सुना। वैसा होते पढा। देखने वालों ने देखा भी होगा। अनुभव करने वालों ने अनुभव भी किया होगा। इन से भूल हो गई, कोई बात नहीं। उनसे गलती हो गई। हो गई तो हो गई, आइंदा सचेत रहना। पर यहां तो उलटा हो रहा है। भाई-बांधव सचेत होने की बजाय लालच के लपेटे में आकर लुटते-पिटते जा रहे हैं। इन में से ज्यादा ऐसे लोग, जो पढे-लिखे-शिक्षित-समझदार और जागरूकवानों की श्रेणी में आते हैं। वो भले ही अपने आप को तीसमार खां का या फन्ने खां समझे, हमारी नजर में वो पढ़े-लिखे मूरख। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


हमें आज-तक यह पता नहीं चला कि ये तीस मार खां और फन्ने खां कौन थे। कहां रहते थे। इन के वालिद साहब कौन थे। ये खान बंधु क्या करते थे। विवाहित थे या छड़े। विवाहित थे तो ससुराल कहां था। इनके बच्चे कितने हैं और क्या करते है। पढाई करते है या साइकिल के पंक्चर निकालते हैं। दोनों में से बड़ा कौन है। तीस या फन्ने। फिर कहीं से आवाज आती है कि ये महज कल्पना है।

दोनों बंदे केवल किरदार हैं। जैसे हकीम लुकमान-वैसे तीसमार खां और फन्ने खां। इसपे भी सवाल ये कि जिसने कल्पना की उसकी सूई तीस पे आ के क्यूं अटकी। वो चाहते तो दस मार खां-बीस मार खां या चालीस-पचास मार खां को ले सकते थे। एक से लगा कर सौ तक में किसी के आगे ‘मार लगा के बिठा सकते थे। लेकिन उनने ऐसा नही किया तो शक होता है कि वो तीस प्रेमी रहे होंगे।

उन्हें तीस विशेष रूप से पसंद होगा। हो सकता है वो तीस छाप बिड़ी पीते हो। बिड़ी का सुट्ठा मारते-मारते तीस मार खां को कल्पना में उतार दिया होगा। खैर, तीस हो या चालीस। यही टोटका फन्ने खां पर भी लागू होता है। हम भले ही फन्ने की जगह पन्ने या बन्ने को उठाते-बिठाते रहे मगर जो ठप्पे ठुकने थे, वो ठुक गए अब भले ही उखाड़-पछाड़ का उपक्रम करते रहो। ऐसा करने से कुछ हासिल भी नहीं होणा है, उलटे लोग मूरख कहेंगे।


हमारे बखत में ‘चाहे कोई मुझे जंगली कहे.. के सुर बिखेरता गाना खूब-चला था। तब के सुपर स्टार शम्मी कपूर ने ‘जंगली फिलिम में वो गाना खूब मटक-मटक के गाया था। खूब लटके लिए..खूब झटके लिए..। अगर उसे आज के परिपेक्ष में गाया-बजाया-परोसा जाए तो ‘जंगली की जगह ‘मूरख चलेगा। चलेगा क्या भागेगा। दौड़ेगा वो भी सौ की स्पीड से। रफ्तार बढ सकती है। घटने का तो सवाल ही नही उठता। मूरख। पागल। येड़ा। गेला। आदि-इत्यादि एक ही कुनबे के माने जाते हैं। कई लोग इन्हें गवारपने थे जोड़ते हैं। कई लोग अशिक्षा से। लोग अनपढ को गवार और मूरख की श्रेणी में रखते हैं। वो समझते हैं कि चार किताब पढने वाले ही सब कुछ हैं और पाली तक पढे-लिखे कुछ नहीं। वो यह नहीं जानते कि गांवों के भाए अनपढ होते हुए भी इतने स्याणे होते हैं कि तुम्हें बेच के आ जाएं और किसी को हिसाब भी ना दें।

एक बार गांव का एक भाया शहर आने को हुआ तो बड्डे-बडेरों ने समझाया ‘शहरिए बड़े ठग होते हैं, कोई चीज खरीदे तो आधे से लेइयो..। भाया मोटर में बैठकर शहर आ गया। चांदपोल में उसने एक छाता मोलाया। दुकानदार ने कहा कि ‘सौ रूपए। तभी उसे काके की बात याद आ गई। बोला-‘सौ नहीं पचास दूंगा। दुकान वाला भाऊ तैयार हो गया। भाए को इस पे भी शक। सोचा कि अभी भी डबल है। बोला ‘पच्चीस। भाऊ समझ गया कि गांव वाला डेढ़ स्याणा है। बोला ‘चल पच्चीस ही दे।इतना उतरने के बावजूद भाया भरम में। सोचा कि अब भी डबल है। कहा कि ‘साढे बारह दूंगा। भाऊ ने छतरी वापस पैक की और गुस्से में बड़बड़ाया-‘ले..फोगट में ले जा..। सुनकर भाया पलटा और बोला ‘दो लूंगा।

माना कि यह लतीफा था, मगर पढे-लिखे लोग जो गवारपना और लालच दिखा रहे हैं। जो मूरखता दिखा रहे है। जो येड़ापंथी कर रहे हैं। जो बावळापन दिखा रहे हैं। वह सच्चाई है। यह सच्चाई आए दिन समाचार पत्रों की सुर्खियां बनती हैं। अपने आप को पढे लिखे कहने-समझने वाले आए दिन लुटपिट रहे हैं।

सोना चमकाने के नाम पर चैन गवा दी। किसी ने बैंक अधिकारी बन के खाता नंबर पूछे तो बता दिया और खुदी अपने खाते की सफाई करवा दी। किसी ने ओटीपी नंबर लेकर चूना लगा दिया। किसी ने ईनाम का झांसा देकर खाते से पईसे निकाल लिए। ऐसा किसी कालूनाथ के साथ नहीं होता। होता भी होगा तो एक परसेंट बाकी के अठानवे परसेंट वो लोग लूटते हैं जो कन्वेंट में पढे-लिखे। डाक्टर लुटे। वकील लुटे। सैन्य अधिकारी लुटे। खुद बैंक अधिकारी लुटे। अफसर लुटे। ऐसों को पढे-लिखे मूरख ना कहें तो क्या कहें..।