शब्द रत्न मंजुषा को सुरक्षित रखने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

आचार्यश्री महाश्रमण
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पर्युषण पर्वाधिराज का चतुर्थ दिवस : वाणी संयम दिवस के रूप में हुआ समायोजित

त्रिपृष्ठ के भव में पहुंची ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’

विशेष प्रतिनिधि, छापर (चूरू)। छापर का चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर, आचार्य कालू महाश्रमण समवसरण का भव्य पण्डाल। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में जैन धर्म के महापर्व पर्युषण पर्वाधिराज का भव्य व आध्यात्मिक आयोजन। सैंकड़ों-सैंकड़ों लोगों की विराट उपस्थिति और हर श्रद्धालु में अधिक से अधिक धर्म का संचय करने की होड़। कोई सामायिक तो कोई स्वाध्याय, कहीं आगम स्वाध्याय तो कहीं सेवा-उपासना का क्रम। कभी मंत्र जप का प्रयोग तो कभी आचार्यश्री के श्रीमुख से मंगलपाठ और मंगल प्रवचन श्रवण का सौभाग्य। इस प्रकार पूरे दिन ही श्रद्धालुजन धर्म की कमाई करने में जुटे हुए हैं। अध्यात्म जगत के देदीप्यमान महासूर्य की मंगल सन्निधि में अध्यात्म की ऐसी ठाट देख जन-जन प्रमुदित नजर आ रहा है।

आचार्यश्री महाश्रमण
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तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता भगवान महावीर के प्रतिनिधि युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्राÓ के क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मरिचि को जब अपने भविष्य की जानकारी हुई तो वह गौरवान्वित हो उठा। इस दुनिया में आदमी पद, प्रतिष्ठा, धन, विद्या, सुन्दरता आदि का घमण्ड कर लेता है। आदमी को भौतिक उपलब्धियों पर अहंकार करने से बचने का प्रयास करना चाहिए। मरिचि एक दिन बीमार हो जाता है, किन्तु वह अकेले साधना कर रहा था तो उसकी सेवा करने वाला कोई नहीं था। साधु के लिए तो सेवा धर्म बताया गया है। आदमी को भी पवित्र और धार्मिक सेवा में अपने समय का नियोजन करने का प्रयास करना चाहिए। अपने घर के बुजुर्गों, बच्चों और परिवार की सेवा करने का प्रयास होना चाहिए।

मरिचि बीमार हुआ तो देखरेख तथा सेवा के अभाव में एक दिन वह कालधर्म को प्राप्त हो गया। वह कर्मों के आधार पर देवलोक में उत्पन्न होता है और फिर उसकी आत्मा देवलोक के आयुष्य को पूर्ण कर पुन: मनुष्य के रूप में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होता है। कर्म करते हुए और अनेक बार देवलोक में पैदा होने के बाद कितनी-कितनी बार भगवान महावीर की आत्मा ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुई। अपने सोलहवें भव में पुन: ब्राह्मण के घर पुष्यमित्र के रूप में जन्म लिया।

वाणी का प्रयोग व्यवहार द्वारा करते हैं

आचार्यश्री महाश्रमण
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पुष्यमित्र ने इस भव में चारित्र को स्वीकार कर लिया और साधना कर लिया, किन्तु उसने अपनी साधना का निदान कर लिया कि कभी मैं प्रबल बलशाली बनूं। अपने 18वें भव में वह आत्मा पोतनपुर के राजा प्रजापति के घर त्रिपृष्ठ के रूप में जन्म लिया। प्रजापति के दोनों पुत्र विद्या में परांगत बने। आचार्यश्री ने वाणी संयम दिवस के संदर्भ में मंगल उद्बोधन देते हुए कहा कि आज वाणी संयम दिवस है। हम वाणी हमारी भावनाओं के आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम है। वाणी मानों एक लब्धि है। हम वाणी के प्रयोग के द्वारा व्यवहार करते हैं।

वाणी का सदुपयोग करने का प्रयास करना चाहिए

आदमी को अपनी वाणी का सदुपयोग करने का प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार आदमी रत्नों को मंजुषा में बंद करके रखता है, उसी प्रकार आदमी अपनी वाणी और शब्दों को शब्द मंजुषा में बंद करके रखने का प्रयास करे। जहां आवश्यकता लगे और पूछा जाए तो आदमी को अपनी मुख रूपी मंजुषा को खोलना चाहिए।

आदमी को परिमित भाषा का प्रयोग करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को अपनी शब्द रत्न मंजुषा को सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए। पर्युषण पर्वाधिराज का चौथा दिन शनिवार को वाणी संयम दिवस के रूप में मनाया गया। मुख्य प्रवचन कार्यक्रम का शुभारम्भ अखण्ड परिव्राजक परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल महामंत्रोच्चार से हुआ। मुनि नमनकुमारजी ने 16वें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ के जीवन प्रसंगों को सुनाया। साध्वीवर्या साध्वी सम्बुद्धयशाजी ने लाघव व सत्य धर्म पर आधारित गीत ‘सत्य की महिमा गाएं हमÓ का संगान किया। मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने लाघव व सत्य धर्म को व्याख्यायित किया। साध्वीप्रमुखा साध्वी विश्रुतविभाजी ने ‘वाणी संयम दिवसÓ के संदर्भ में श्रद्धालुओं को उत्प्रेरित किया।

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