फर्जीचंद.. फर्जीखान..

इस का मतलब यह हुआ कि फर्जीचंदों की फसल कभी खल्लास होने वाली नही। जब तक दुनिया चलेगी तब तक फर्जीखानों की खान में से नए-नए फर्जी निकलते रहेंगे। हम वो नारा नहीं लगा सकते। इसलिए नही लगा सकते कि उनकी शान में वह शानदार नारा लगाने का मतलब उस नारे की तौहीन करने के समान है। लिहाजा जोर से नहीं लगाकर धीरे से फुसफुसा देते हैं-‘जब तक सूरज-चांद रहेगा, फर्जीचंद का नाम रहेगा..।दूसरी तरफ से सुर गूजेंगे- खानसामों की एक ही खान-फर्जीखान-फर्जीखान..। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


हम चाहते तो इन नारों को जोर लगा के हूं..इ..सा.. की तर्ज पर लगा सकते थे। हम चाहते तो इन नारों को बांग की तर्ज पे बहा सकते थे। नहीं बहाया तो इसके पीछे अपने कारण है। ऐसे नारे अमूमन कहां लगते हैं.. किस बखत लगते हैं..इसके बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं। ऐसा नारा लग रहा है तो लोग समझ जाते हैं कि किसी की विदाई शानदार तरीके से हो रही है। ऐसे नारे कानों में घुलते ही सिर श्रद्धा से झुक जाता है। ऐसा नारा कानों में घुलते ही हाथ सेल्यूट की मुद्रा में उठ खड़े होते हैं। ऐसा क्यूं होता है और कब होता है, उसके बारे में ज्यादा पत्रवाचन करने की जरूरत नहीं। गली-गुवाड़ी स्तर के एक भाईसाहब के पीछे ऐसे नारे लगते सुने तो उनके लिए फुसफुसाने में क्या हर्ज है। हमी ने फुसफुसाया और हमी ने सुना। आप ने पढ लिया तो अलग बात है, कसम है आगे किसी को बता दिया तो। इसके बावजूद बता दिया तो बता दिया। नारे तो नारे हैं-सम्मान में लगे तो नारे और वापस जाओ..वापस जाओ.. की आवाज गंूजे तो नारे हैं..।


आप ने देखा-सुना होगा या नहीं। कई बंधुओं ने देखा भी है और सुना भी है। हो सकता है लगाया भी हो। नारों के सुर-टोन बदलते देर नही लगती। इसकी तुलना पल मे तोला-पल में माशा-दुनिया एक तमाशा से की जा सकती है। इस कहावत में तमाशा वाली लाइन हथाईबाजों के दिमाग की कुबद है। लोगों के स्वभाव-जायके और रंग बदलने के तौर-तरीकों को देखकर कहावतों के शिल्पियों ने-‘तोला-माशा वाली कहावत घड़ दी। कब घड़ी इसका तो पता नहीं। इतना जरूर कह सकते हैं कि कहावत सच्चाई की बुनियाद पर खडी है। खालीपीली इसी की बात नहीं, अपने यहां प्रचलित हरेक कहावत की नींव इतनी मजबूत है कि पूछो मति। ऐसा लगता है मानों उनकी चुनाई करते समय सिमेंट-गारे की जगह सीसा उडेला गया हो। गरमागरम सीसा कही पड जाए तो गई युगों-युगों की। वो इमारत कभी-‘धुड़ नही सकती। अपनी कहावतें-आडिएं-औखाणे और यहां तक कि चुटकुलों-लतीफों की बुनियाद भी बुलंद नजर आती है। कहावते न बदली हैं ना बदलेंगी मगर नारों का कोई भरोसा नहीं। नारे तो नारे-लगाने वाले भी कब रंग बदल दें, कह नही सकते। बात उसी की चल रही थी।


नारों पर वैसे तो किसी जमात विशेष का अधिकार नहीं मगर खास कर दो कौमें इसमें सबसे तगड़ी। पहली करमचारी जमात और दूसरी सियासतअलियों की। सियासी पारटियों के चंगु-मंगु ऐसे नारे गंूजाते हैं कि कान में अंगुली ठूसनी पड़ती है। नेत्री के मंच पर आते ही माईक बंद…मगर नारे गूंजते हैं-‘ पोपा बाई आई है.. नई रोशनी लाई है..। सरकारी कारिंदे मंतरी-अधिकारी को ज्ञापन देने जाते हैं तब नारों की शक्ल कुछ और, वापस आते है तो सूरत कुछ और। जाते समय नारे लगते हैं-‘अभी तो ली अंगड़ाई है.. आगे और लड़ाई है..। ज्ञापन दिया। नेता-मंतरी ने शिष्ठमंडल को आदर सहित बिठाया। चाय-पानी से सत्कार किया। उन्हें सरकार की रीढ बताया। उनके काम की तारीफ की। दो-चार-नेतों के कंधे पे हाथ रखा। उनके शर्ट का सबसे ऊपर का खुला बटन बंद किया। मांग पत्र ठेठ ऊपर से नीचे तक पढने का उपक्रम किया और मसालेदार आश्वासन देकर विदा किया तो लौटते समय नारों का रंग कुछ और-‘हमारा नेता कैसा हो.. मांगीलाल जैसा हो..।

पर हथाईबाज जिस का जिक्र करना चाहते हैं वो नारों के लायक नही है। वो ना-लायक। ना-लायक पर कोई यह ना समझ बैठे कि हम उन्नीस विधायकों के बाड़े के मालिक की बात कर रहे हैं बल्कि उन पर लानत डाल रहे हैं जो फर्जीचंद और फर्जीखान होते हुए भी नारों में स्थान पा रहे हैं। इसके माने ये कि रील वाले बंटी ने ताज बेच दिया और रियल वाले बंटी ने सरकारी दफ्तर ठपा दिए। बच के रहना रे बाबा..कहीं ऐसा ना हो कि वो अफसरों का सौदा भी कर दें।

हवा भुजियागढ बीकानेर से आई। वहां छत्तरगढ तहसील क्षेत्र में भूमाफिया जोरदार तरीके से सक्रिय हैं। ठगुओं ने वहां इंदिरा गांधी नहर परियोजना के दोनों तरफ की, बेशकीमती जमीन बेच दी। ऐसा वहीं हुआ अथवा पहली बार हुआ, ऐसा नही है। ठग्गू और भूमाफिया आखे देश में सक्रिय है। देश के हर कौने में आप को ऐसे बंटी मिल जाएंगे। हैरत तब हुई जब उन्होंने सरकारी जमीन तो बेची ही, वहां बने वन विभाग के रेंज कार्यालय। नर्सरी। पीएचइ महकमें की डिग्गियां और कार्यालय तकातक के पट्टे काटकर बेच दिए। फर्जीचंद यह खेल पिछले लंबे समय से चला रहे हैं। वो लोग 150 से ज्यादा मुरब्बों के फरजी पट्टे तैयार कर बेच चुके हैं। सरकार और अफसर तो सोते ही रहते, मीडिया ने उन्हें जगा दिया। अब तो सक्रिय होने का उपक्रम कर रहे हैं। फर्जी पट्टों की पकड़ा पकड़ी हो रही है। एक ओर जांच तो दूसरी ओर नारे-‘जब तक सूरज चांद रहेगा..फर्जीचंद का नाम रहेगा..। खानसामों का एक ही खान.. फर्जीखान..फर्जीखान..।