सजा का मजा

शीर्षक पढ़ कर हैरत हो रही होगी। ऐसा होना लाजिमी है। ऐसा होना स्वाभाविक हैं। सजा में मजा कैसे आ सकता है। आनंद अन्य क्षेत्रों का उठाया जाता तो बात समझ में आती। समझ में तो यहां भी आ जाएगी, मगर होले-होले.. आहिस्ता-आहिस्ता। समझाने में कोई कोर-कसर नहीं, इसके बावजूद कोई समझने की कोशिश ना करें या समझ में ना आने का नाटक करे, उसका तो कोई चारा नहीं। कुल जमा थोड़ा इंतजार का मजा लिजिए..। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

कई बार ऐसी बातों को भी पचाना पड़ जाता है, जो सर्वथा अपचनीय होती है। चाहे जितनी हाजमौला ले ल्यो..। चाहे जित्ती हवा बाण हरड़े ले ल्यो.. नहीं पचणी हैं तो नही पचणी है, फिर भी पचाणी पड़ती है। कई बार आंखें मींचणी पड़ जाती है। कई बार कान बंद करने पड़ जाते हैं। कई दफे मुंह बंद करके रखना पड़ता है। बाजवक्त बढाए गए कदम वापस पीछे खींचणे पड़ते हैं। लोगों को लगता होगा कि सजा में मजा भी उसी राह पे चल रहा होगा, मगर ऐसा नहीं है। हमें पता हैं कि कई लोगों को ऐसा मजा पच नही रहा होगा, मगर ऐसा नही है। हां, हैडिंग पढ के ऐसा जरूर लगता है। यहां तो जान पे बन आई है और तुम्हें मजा आ रिया है..।

सजा की अपनी भरी-पूरी दुनिया है। लंबी-चौड़ी-ऊंडी-ऊंची कायनात है। लंबी-चौड़ी-ऊंची पे कोई लोचा नही। हमारे समय की नस्ल के लोग ऊंडी के बारे में बखूबी जानते है। नई पीढी के बच्चों की समझ में आ जाए या आ गया होगा, इस पे शक। उन्हें समझाना अपना काम है। ‘ऊंडी बोले तो गहरी। गहराई को आपणी राजस्थानी भाषा में ‘ऊंड़ी कहते हैं। ओ ताळाब कित्तो ऊंडो है.. माने यह तालाब कितना गहरा है। टंकी कित्ती ऊंडी बणावणी है.. माने टंकी कितनी गहरी बनानी है। काकोसा री सोच कित्ती ऊंडी है.. माने चाचाजी की सोच कितनी गहरी है। इसके माने सजा की दुनिया लंबी-चौड़ी-ऊंची के साथ कितनी गहरी है, उसे नापना किसी के बूते की बात नहीं।


देश-दुनिया में ऐसा कोई बंदा नहीं जिसने अपने जीवन काल में कभी ना कभी.. कोई ना कोई सजा ना भुगती हो। हमें तो आज भी याद है तब स्कूल की लगभग सारी क्लासों के बाहर कोई ना कोई छोरा मुर्गा बना रहता था। कोई क्लास के अंदर टेबिल पे हाथ ऊपर करके खड़ा तो कोई कुरसी बन के। ज्यादा बदमाशियां करने वाले मुर्गे बने क्लास के बाहर और उनसे ज्यादा अलामिएं करने वाले मैदान में मेंढक चाल की सजा भुगतते नजर आते। ऐसा कोई दिन नहीं जाता तब बच्चे सजा ना भुगतते।

स्कूल देरी से पहुंचे तो सजा। क्लास में हाके करो तो सजा। डे्रस में ना जाओ तो सजा। होम टास्क पूरा करके ना ले जाओ तो सजा। रेसिस में आपस में उलझ जाओ तो सजा। कसम से बचपने में इतनी सजा भुगती कि बयां नहीं कर सकते मगर घर जाकर कभी शिकायत नही की। एक-दो बार की तो वहां भी कुटाई हुई। डांट खाने को मिली कि जरूर तूने कुछ किया होगा तभी माट्साब ने सजा दी, वरना उन्हें ठोकने में मजा थोड़े ही आता है।

उसी सजा के मजे परिणाम है कि जिंदगी की एक पारी आराम से गुजर रही है। उसी सजा के कारण चार अच्छे मिनखों में बैठने के लायक बने हैं, वरना आज बच्चों को ठोकना तो दूर डांटना भी गुनाह हो गया है। माट्साब भी दबी जुबान से यह कहने से नही चूकते कि-‘पढो तो ठीक वरना करम फूटे तुम्हारे। ठोका-ठाकी करें तो विभाग का डंडा तैयार। अभिभावक लडऩे आ जाएं सो अलग। लिहाजा स्कूल आओ..रोटी खाओ..वापस और पधारो..।


सजा सामाजिक के साथ-साथ कानूनी प्रक्रिया भी है। गलती क्षम्य है मगर अपराध साबित होने पर सजा का प्रावधान भी है। अपने यहां भांत-भांत की सजाएं निर्धारित है। लापरवाही की सजा। बेपरवाही की सजा। गुनाह की सजा। अपराध की सजा। कई बार नसीहत देने के लिए भी सजा दी जाती है। पर हथाईबाज जिस सजा की बात कर रहे हैं वैसी सजा देना आम हो जाए तो सफाई कर्मियों की फौज की जगह पुलिस वाले नजर आएंगे। साब से लेकर पांडु तक के हाथ में झांडू-तसला। सजायाफ्ता को भले ही गुस्सा आया हो, हमें तो मजा आया। ऐसी सजा चलती रहणी चाहिए।


हवा बेंगलूरू से आई। कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक मामले में लापरवाही बरतने पर कलबुर्गी के स्टेशन बाजार-पुलिस थाने के एसएचओ को थाने के सामने वाली रोड को एक हफ्ते तक साफ करने के आदेश दिए। दारोगा ने सजा कबूल भी कर ली। याने कि जिस रास्ते से साबजी रौब-रूआब से निकलते थे, उसी पे वो झाडू लगाएंगे। हो सकता है उनसे पीडि़त लोग वहां रोजिना कचरा लाकर टेक दें। ले बेटा सफाई कर।


यहां दो बातें। पहली ये कि दारोगा गलती मानकर सजा भुगतने को तैयार हो गए। वो चाहते तो सर्वोच्च न्यायालय में अपील भी कर सकते थे। दूसरी ये कि ऐसी सजा से अन्य लोग सीख ले सकते है। भाई रे, लापरवाही की तो सड़क साफ करनी पड़ जाएगी। हथाईबाजों की राय है कि जेल की बजाय ऐसी सजा दी जाए तो ठीक रहेगा। ऐसी सजा का मजा ही कुछ और है।