भगवान बचाए, ऐसी लाइन से

कैसी विडम्बना है कि जिसके बारे में कभी सोचा भी नही था, वो नंगी आंखों से दिख रहा है। जिसकी कल्पना ही नही की थी, वो होते दिख रहा है। किस को पता था कि ऐसी लाइन लगती देखनी पड़ जाएगी।

लाइन वाले देश को ऐसी लाइन भुगतनी पड़ जाएगी। हम लाइन तोडऩे में अव्वल माने जाते हैं, पर ये लाइन तोड़ नही पा रहे। यूं कहें कि इस लाइन के लिए हम-आप भी जिम्मेदार हंै, तो अतिश्योक्ति नही होगी। खैर, हुआ सो हुआ। अभी भी वक्त है, हम सब को मिल कर इस लाइन को तोडऩा होगा-फिर खल्लास करना होगा। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

देश में पहली लाइन किस के लिए बनी। कब बनी और किसने बनाई इसक बारे में किसी के पास कोई अधिकृत जानकारी नहीं होगी। अगर किसी के पास है, तो जाहिर करने का आग्रह ताकि लोग लोग अपनी जानकारी का खजाना बढा सकें। आप का परोसा ज्ञान हजारों-लाखों लोगों का ज्ञान बढाने में मददगार होगा और किसी के पास इस संबंध में कोई जानकारी नही है तो हमारी लाइन में लग जाएं ताकि अपन सब मिल कर उसके बारे में कोई खोज खबर हासिल कर सकें। आधे इधर-आधे उधर, बाकी हमारे पीछे। इसके बावजूद कोई बच जाए तो सैकंड लॉट में उनकी बारी।

एक जमाने में भारत को ओझों-गुणियों का देश माना जाता था। एक जमाने में हम सपेरों-काळबेळियों के देश के नागरिक कहे जाते थे। ये मुलम्मे तो उतर गए मगर एक ठप्पा अभी तक ठुका हुआ है। हमने आकाश में झंडे गाड़ दिए। अपन ने समंदर की लहरों पर भारत का नाम लिख दिया। हमने धरती पे हिन्दुस्तान को अग्रणी की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया मगर अफसोस कि हम अपने पर ठुके लाइनों वाले देश का ठप्पा मिटा नही पाए। मिटाना तो दूर कई बार उलटे लाइने और ज्यादा लंबी होती नजर आती है। कई बार ऑन लाइनें भी ठप्प हो जाती है। ऑन लाइन पर ऑफ लाइन और परंपरागत लाइनें भारी पड़ती नजर आती है।
कोई सवाल करे कि लाइन कहां नहीं लगती तो जवाब होगा-लाइन सब जगह लगती हैं। कई बार उलटा सुनने को मिल जाएगा कि ये पूछो कि लाइन कहां नही लगती। सवाल वही जो पहले पूछा गया था। सवाल वही जो बाद में दागा गया, मगर परोसने में दिन-रात का फरक।

हरियाणे में ‘लाल को लेकर एक कहावत आम है-‘लाली मेरे लाल की नित देखूं तिन लाल..। इसे लाइन में में बदल दिया जाए तो कहाई के अर्थ-मायने भी बदल जाएंगे। कहावत हो जाएगी-‘लाइन मेरे लाल की, जित देखूं तित लाइन..। जहां नजर डालोगे, वही लाइन नजर आएगी तिस पे ऑन लाइन का युग चल रहा है।

एक जमाने में हम अंगुलियों पर तीन-दो-पांच किया करते थे, आज केलक्यूलेटर-कंप्यूटर-डिजिटल युग आ गया मगर लाइन कम होणे का नाम नही ले रही। उलटे हमारी बेपरवाहियों के कारण नई लाइन का लोकार्पण हो गया। पुरानी लाइनें भले ही लगती रहें। भले ही लंबी होती रहें मगर नई लाइन को हाशिए पे टोकना निहायत जरूरी है। इसके लिए हम सब को पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ अपना सहयोग देना होगा।

देश में इतनी लाइने कि एक-एक को गिनाणा असंभव। एक-एक की गिनती करना नामुमकिन मगर खास-खास को लेना जरूरी। वो नहीं तो कुछ नहीं। राशन की दुकानों पे लाइन। अस्पतालों में लाइन। बिल भरवाने के लिए लाइन। टेसण-बस अड्डों पे लाइन। बैंकों में लाइन। टिकट लेने के लिए लाइन। टिकट बुक करवाने के लिए लाइन। दाखिले का फार्म लेने से लेकर फीस जमा करवाने के लिए लाइन। यहां तक तो चला लिया और आगे भी चला लेंगे। हम लाइन में लगने और लाइन तोडऩे के आदी हो चुके हैं मगर वैसी लाइन से भगवान बचाए जो इन दिनों कुछ शहरों में देखी जा रही है।

कोरोना की दूसरी लहर ने देशभर में कोहराम मचा रखा है। राष्ट्र स्तर पर प्रतिदिन संक्रमितेां का आंकड़ा दो-सवा लाख के बाहर और कई राज्यों में हजारों के पास। मरने वालों की संख्या इतना बढ गई कि श्मशान घाट पे लकडिय़ों की कमी हो गई। अंतिम संस्कार के लिए शवों की लाइन। एक चिता में दो-चार की एक साथ अन्तेष्टि। उसके लिए भी इंतजार। इसके लिए जिम्मेदार कौन। लोगों की लापरवहियां। बेपरवाहियां। सूगली सियासत। यदि हम ने गाइड लाइन की पालना की होती तो ऐसी लाइनें भुगतनी नही पड़ती। अभी भी समय है, चेत जाओ। कोरोना से डरे। डरके अगे जिंदगी है। दूरी रखो। धर में रहो-सुरक्षित रहो। भीड़भाड़ से बचो। हाथ धोते रहो। आओ हम सब मिल कर गाइड लाइन की पालना करें।

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