स्कूलों पर भारी अस्पताल

होना क्या था। हो क्या गया। हम-आप सोचते कुछ और है। हो कुछ और जाता है। कई दफे तो लगता है कि समय-मौसम और मानखों के बीच गुप्त एमओयू हो रखा है। उन्होने रंग बदलने में गिरगिट को भी पीछे छोड दिया। हम जानते है कि समय फिर पलटेगा। आज अस्पताल जीते है तो कल स्कूलें फिर आगे बढ़ेगी। आज स्कूलों पे अस्पताल भारी पड़े तो कल स्कूलें अस्पतालों पे भारी पडती नजर आएंगी। शहर की एक हथाई पे आज इसी के चर्चे हो रहे थे।

कोई चाहे तो तीन तिलंगो के गठजोड में नेतो को भी शामिल कर सकता है। एक हिसाब से देखा जाए तो इनके बिना रंग बदलने की कला आधी-अधूरी है। वो नेता ही क्या जो रंग और रंगत ना बदले। लिहाजा तीन तिलंगो के स्थान पे चार की चौकडी की जा सकती है। कौन कैसा और कितने रंग बदलता है। यह आखा देश देखता रहा है। देख रहा है और देखता रहेगा। कोई जाण के अनजान बन जाए तो बात और है वरना सच्चाई सब के सामने है।
हथाईबाजों ने चौकडी का हथलेवा कुछ सोच-समझ के जोड़ा है। जानने वाले बखूबी जानते है कि हथाई पर चासे लिए जाते है तभी लिए जाते है, वरना गंभीर मसले-मुद्दे पर ठावी बात होती है। बातों की अपनी बातें है। न शोर ना गिला।

अंतहीन। कभी अस्त न होने वाला बातों का सूर्य। जैसे दुनिया नहीं सोती-वैसे बातें भी नही सोती। साची बात-सीधी बात। खरी बात। खबरिया चैनल्स में न्यूज कम बातें ज्यादा होती है और हथाईयों पर विचार ज्यादा बातें कम। आप एक घंटे कोई खबरिया चैनल ले के बैठ जाओ। आधे घंटे में अघा जाओगे। इसकी पलट में किसी को भीमजी की हथाई पे बिठा द्यो। घंटों बीत जाएंगे-पता ही नही चलेगा।

चैनल्स पे एक ही रट्टा और हथाई पे भांत-भांत के विचार। एक से बढकर एक वक्ता। ज्ञानी-ध्यानी-विद्वानी। सब के सब मिल जाणे है। किसी बीमारी का इलाज जानना हो तो डेढ सौ के नाम पटल पे आ जाएंगे। किसी नेते की जनम पतरी-करम पतरी निकालनी हो तो वह भी हाजिर। गीत-संगीत का पोस्टमार्टम करना हो तो उस में भी मेणी नही। शादी-सरपण के लिए लुडका-लुडकी के बारे में जानना हो तो उनकेे पुरखों तक की पूरी जानकारी तैयार। ऐसे ज्ञानियों ने चौकडी सोच-विचार के बनाई है।

मौसम के मिजाज कब बदल जाएं। कोई कुछ नहीं कह सकता। अभी झमाझम-एक घंटे बाद तावड़ा। माणक चौक में बारिश। नई सड़क सूखी। चांदपोल में पनाळे-त्रिपोलिया में धूप। देश के कई हिस्सों में बारिश तबाही मचा रही है और हम-आप आकाश की ओर टकटकी लगा के बैठे है। कही अतिवृष्टि-कहीं सूखा। कहीं अकाल-कही दुकाल। यह मौसम का दिवानापन नहीं तो और क्या है। समय कब पसवाडा फेर ले, कोई नही जानता। सुबह राजा-शाम को रंक। हट्टे-कट्टे गबरू सोते के सोते रह गए। कई के पद-ओहदे-रूतबे चले गए। समय ने भगवान राम को भी नहीं बख्शा तो हमारी-आपकी बिसात ही क्या। किसे पता था कि राजतिलक छोड कर रामजी को वन जाना पड जाएगा। कवि भी कहता है- समय का खेल निराला रे भाई… समय का खेल निराला…। मानखों का मिजाज आप देख ही रहे है। कौन सगा है कौन ठगा। पता ही नही चलता। किस के मुंह में राम है किस के मुंह में छुरा-कोई नही जानता। सामने रूप कुछ और पीठ मुडते ही सिणगार कुछ और। जिसे देखो वो मतलब का चूरमा-चूरने में व्यस्त। मतलब निकलते ही-तोते वाली आंख बदलने में माहिर।

रही बात गिरगिट की तो यह खोज का विषय है कि रंग बदलने की कला इंसान ने गिरगिट से सीखी या गिरगिट ने इंसान से। कहते है कि गिरगिट बारह रंग बदलता है। इंसान ने तो उसे भी पीछे धकेल दिया। इसे कहते है समय की बात जो कोरोना काल के समय एक बार फिर खरी उतर रही है।

कोरोनाकाल से लेकर अब तक राज्य में आठ हजार के करीब छोटे-मोटे निजी विद्यालय बंद हो चुके है। इसकी पलट में प्राइवेट अस्पतालों का बिकरी बट्टा चालीस फीसदी बढ़ गया। शिक्षा और चिकित्सा आम परिवार से जुड़े है। शिक्षा भी जरूरी और हारी बीमारी में चिकित्सा भी जरूरी। कोरोनाकाल ने निजी शिक्षण संस्थाओ पे ताले ठोक दिए और अस्पताल आबाद हो गए। निजी अस्पतालासें में पहले से ही कथित लूट मची थी-समय ने और इजाफा कर दिया।
अब तो ईश्वर से फिर से प्रार्थना है कि सब कुछ पहले जैसा हो जाए। वही राग-वही रौनक। वहीं हंसी-वही ठठ्ठा। ताकि अस्पतालों का भारीपन हल्का हो।

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