‘भारत तभी समृद्ध हो सकता है जब जातिवाद व छुआछूत समाप्त हो’

गांधीवादी बाबू जगजीवन राम

बाबू जगजीवन राम का जन्म 5 अप्रेल 1908 को बिहार के चन्दवा गांव में एक निर्धन दलित परिवार में हुआ था। उन्होंने बनारस और कलकत्ता विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। सक्रिय राजनीतिज्ञ के रूप में बाबू जगजीवन राम 1937 में कांग्रेस द्वारा बिहार विधानसभा में आये। 1939 में सत्याग्रह में भाग लेने के लिए उन्होंने बिहार मंत्रीमंडल से त्यागपत्र दिया। अपने मंत्रीकाल में उन्होंने मजदूर संगठनों और राष्ट्रवादी हरिजनों को संगठित किया। 1942 में उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया। 1946 में श्रम मंत्री का पद संभाला और 1963 तक विभिन्न विभागों के मंत्री रहे। कामराज योजना के अन्तर्गत उन्होंने त्यागपत्र दिया। 1966 से 1977 तक कांग्रेस शासनकाल में पुऩ: मंत्री रहे, बाद में जनता पार्टी के शासनकाल में 1977 से 1979 तक वे प्रतिरक्षा मंत्री रहे और 1979 में उपप्रधानमंत्री रहे। जीवन के अंतिम समय तक वे दलितों व पिछड़े वर्गो के लिए संघर्षरत रहे।

आजादी के आन्दोलन में महात्मा गांधी की प्रेरणा से उन्होंने भागीदारी की। सत्याग्रह आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने के उद्देश्य से ही उन्होंने 1939 में बिहार मंत्रीमंडल से त्यागपत्र दिया। युवावस्था में बाबू जगजीवन राम ने राष्टवादी हरिजनों एवं मजदूरों को संगठित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया एवं अपने जीवन के अंतिम समय तक दलितों एवं पिछड़े वर्गो के हितों के लिए कार्य करते रहे। बाबू जगजीवन राम कहते थे कि ”छुआछूत समाज के दलित लोगों को उचित अवसर से वंचित करती है एवं समाज में दासता का पुट आ जाता है। उनका विश्वास था कि जब तक समाज व आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया जायेगा, तब तक छुआछूत समाप्त नहीं होगी। इसके लिए वे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से अहिंसक क्रांति लाने की आवश्यकता महसूस करते थे।

अपने लेखों व भाषणों में सदैव रविदास, कालिदास के विचारों का उल्लेख करते थे। दोषारोपण करना उनकी आदत नहीं थी। वर्ग भेद, जाति प्रथा के लिए उन्होंने मनुस्मृति को दोष नहीं दिया। उन्होंने उच्च वर्ग के प्रति अपने में कभी राग-द्वेष नहीं रखा। ”महावीर स्वामी व गौतम बुद्ध ने अनुष्ठान और कर्मकांड आधारित आचरण को महत्व दिया, स्वामी विवेकानन्द ने कर्मकांड और अर्थहीन उत्सवों की आलोचना की।

बाबू जगजीवन राम उनके विचारों से प्रभावित हुए। रविदास के ”जांत पांत पूछे नहीं कोई, हरि का भजे सो हरि का होई कथन में उनका विश्वास था। राजा राममोहन राय के क्रांतिकारी विचारों को प्रस्तुत किया, स्वामी दयानन्द की मानव-मानव में परस्पर भाईचारे की भावना, लोकमान्य तिलक के निष्काम कर्म का आव्हान आदि ने समाज में सुधार किया। जगजीवन राम महात्मा गांधी के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए। महात्मा गांधी के बारे में उन्होंने कहा था ”करोड़ों लोगों को गांधी जी उन ऋषियों की तरह लगते हैं जिनका प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में वर्णन है, गांधी जी कहते हैं कि गुलामी का कारण अंग्रेजों की बंदूकें नहीं बल्कि हमारे समाज की गलत व्यवस्थाएं है। गांधी से प्रभावित बाबू जगजीवन राम वर्ग संघर्ष व आपसी वैमनष्यता में विश्वास नहीं करते थे।

गांधी जी के विचारों के अनुसार सवर्णो की मानसिकता में बदलाव लाकर एवं दलितों को विशेष अवसर प्रदान कर प्रगतिशील विचारों को अपनाते हुए विकास की ओर अग्रसर करने में उनका विश्वास था। धर्म परिवर्तन में उनका विश्वास नहीं था। वे कहते थे ”यद्यपि दलितों ने सवर्ण हिन्दुओं के हाथों अत्याचार सहे, तो भी मैं समझता हूं कि हिन्दू धर्म का परित्याग करके वे अपनी समस्याओं को हल नहीं कर सकते। जब तक जाति वर्ग को पूर्णत: निर्मूल नहीं कर दिया जाता, भूमि का नए सिरे से बंटवारा नहीं होता और अछूत कहे जाने वाले लोगों को बराबर अवसर नहीं दिए जाते तब तक भारत फल-फूल नहीं सकता।

उनका कथन था कि अब नामों के साथ जातिसूचक नाम और पदों को लिखने पर पाबंदी लगा देनी चाहिए अन्यथा यह बात हमारे राष्ट्रीय और भावनात्मक एकीकरण में बाधक हो सकती है। बाबू जगजीवन राम के अनुसार कानूनन पास करके ऐसा संभव है। उनका मत था कि जब तक लोग जातिवाद के गहरे खतरों को नहीं समझेंगे, सफलता की कोई आशा नहीं है। उनके अनुसार जातिवाद को निर्मूल नष्ट करना आसान नहीं है। परन्तु भारत तभी समृद्ध हो सकता है जब जातिवाद व छुआछूत समाप्त हो। बाबू जगजीवन राम ने आरक्षण का समर्थन करते हुए कहा था कि ”आरक्षण का विरोध करने वाले राष्ट्र को अपनी इजारेदारी मानते है और उन्हें डर है कि विशेष आरक्षणों से विघटनकारी शक्तियों को बल मिलेगा। उनका मानना था, यह भय एकदम निराधार है और इसके विपरीत इन आरक्षणों से पिछड़ी जातियों में विश्वास पैदा होगा कि उन्हें प्रगति के अवसरों से वंचित नहीं रखा गया।

बाबू जगजीवन राम के अनुसार गैर बराबरी व छूआछूत की समस्या का हल केवल सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के क्रांतिकारी परिवर्तनों से ही संभव है। उनके अनुसार लोगों की विचारधाराओं में परिवर्तन करते समय मूल रूप से सामाजिक, आर्थिक बुराईयों को समाप्त करना होगा जिनके कारण छुआछूत व जातिगत भेदभाव पैदा होता है। देश में व्याप्त समस्याओं को अनुसूचित जाति के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि सारे देश के दृष्टिकोण से देखें तो यह समस्याएं समाप्त की जा सकेंगी। उनके अनुसार भारत वर्ष में वे लोग सबसे अधिक निर्धन है जो सामान उत्पादित करते है। गरीब, मजदूर, कारीगर इसके लाभों से वंचित रहते है और लाभ उन लोगों के हाथ चला जाता है, जिनके हाथों में शक्ति है। उनका यह भी मत था कि शोषण के उन्मूलन को एक आन्दोलन का रूप देना होगा।

जगजीवन राम का कथन था कि स्वतंत्रता के बाद आज भी हमारा देश सामाजिक संघर्ष व सांस्कृतिक संकट से गुजर रहा है। जांत-पांत और छुआछूत की समस्या बनी हुई है। हम संस्कृति के उच्च नैतिक मूल्यों और लोकतंत्र की बात करते है, सभ्यता का राग अलापते है, तकनीकी और आर्थिक विकास की बात करते है परन्तु जब तक जाति व्यवस्था ऊंच-नीच का फर्क, गरीबी और असमानता, अशिक्षा, महिला अत्याचार का उन्मूलन नहीं होगा, ये सब बातें निरर्थक रहेंगी। उनके अनुसार सामाजिक संघर्ष और सांस्कृतिक संकट के कारण निर्विवाद रूप से सारे देश में असंतोष फैला हुआ है। हमारे नैतिक मूल्यों का ह्वांस हो रहा है। मानवीय मूल्यों को आत्मसात करने की योग्यता नहीं रही है। सामंती विचारधारा और पुरातनपंथी खौफ कायम है।

बाबू जगजीवन राम के अनुसार सामाजिक व्यवस्था को जब समर्थन नहीं मिला तो उसे ईश्वर प्रदत्त कह दिया गया। मतैक्य के अभाव के कारण एक संगठित भारतीय समाज का विकास नहीं हो सका। भारतीय समाज भारतीय नहीं रहा बल्कि सहस्त्रों समाज का एकीकरण रहा। प्रगति का एकमात्र रास्ता सामाजिक कार्यकलापों का विस्तार है और उसके लिए आवश्यक है कि सामाजिक जीवन में सांस्कृतिक चेतना उदय हो। जब तक जांत-पांत की व्यवस्था और अराजकता का अंत नहीं कर दिया जाता तब तक सर्वांगीण रचनात्मकता और सहयोग पर आधारित समाज की स्थापना का कोई रास्ता नहीं दिखता। जाति प्रथा उन्मूलन एक ऐतिहासिक आवश्यकता है और इसका अर्थ है सामाजिक चेतना की क्रांति।

महात्मा गांधी ने कहा था कि ”हम अपने को बदलकर ही दूसरों को बदल सकते है, वे मार्क्स के इस विश्लेषण से सहमत थे कि हमारा आर्थिक, जीवन, उत्पादन, वितरण आदि राजनीतिक और सामाजिकता पर प्रभाव डालता है और नई सामाजिक व्यवस्था का निर्माण पुरानी व्यवस्था का सर्वनाश करके ही किया जा सकता है।ÓÓ अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति ने वर्तमान समय तक समस्याओं से संघर्ष किया है। उनमें जो थोडी बहुत जाग्रति आई है उसके परिणामस्वरूप वे झिझकते कदमों से उन पर हुए अत्याचारों का विरोध करने का प्रयास व चेष्टा कर रहे हैं, जो सदियों से उन पर होते आये है। बाबू जगजीवन राम कहते थे ”जो लोग सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक रूप से पिछड़े हैं, उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था लोकतंत्र में अनमोल है।

संविधान की बातों से दृढ़ प्रतिज्ञ होकर संगठित ढंग से समाज में बदलाव आवश्यक है। जब पिछड़े वर्गो के लोग आरक्षण की मांग करते है तो हिन्दुओं को यह नहीं सोच लेना चाहिए कि इससे राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ जाएगी बल्कि इस संबंध में अच्छी भूमिका निभानी चाहिए। संविधान निर्माण के पश्चात दलितों को मिले विशेषाधिकार, अवसर व उनके उत्थान संबंधी नीतियों व प्रावधानों को प्रशासनिक स्तर पर लागू कराने में उनका उच्चस्तरीय योगदान रहा। श्रम मंत्री के रूप में मजदूरों के हितों में कानून व नियम बने व लागू हुए। डा. अम्बेडकर ने भी इस संबंध में उनके कार्यो व योगदान की प्रशंसा की।

  • डॉ. सत्यनारायण सिंह
    आईएएस (आर.)