दारूधिकार

मामला आदरजोग कोर्ट का होने के कारण हम कोई टीका-टीप्पणी तो नही कर सकते, मगर जागरूक नागरिक होने के नाते इतनी सलाह तो दे ही सकते है। इतना भर तो कह ही सकते हैं कि जो लोग मुकदमों का पहाड़ खड़ा करने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं उन्हें कभी सकारात्मक नजरिया भी अपनाना चाहिए। वो निजता पर ध्यान दें, हमें कोई एतराज नहीं-कभी-कभार सामूहिकता के बारे में भी सोच लिया करें। जहां सामूहिक हित की बात होती है, वहां व्यक्तिगत हित गौण हो जाते हैं।

शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे। देश में कोर्ट-कचहरियों के हाल-हूलिए किसी से छुपे हुए नहीं है। लगभग हर न्यायालय में लंबित मुकदमों की भरमार है। जजों-न्यायाधीशों की कमी को इसका सबसे बड़ा कारण बताया जाता है। जो हो भी सकता है। हम कोई कानूनविद् नहीं। हम कोई वकील-अधिवक्ता या मुंछी नहीं। हम कोई कोर्ट कर्मी नहीं मगर अनुभव और यहां-वहां तैरती खबरों को पकड़ के कह सकते हैं कि मुकदमों के अंबार लगने का सिर्फ यही एक कारण हो। ऐसा हम नहीं मानते। इन के कारण और भी हैं जिनपे या तो कोई ध्यान दे नही रहा या फिर उनकी आंखों पे न्याय की देवी वाली काली पट्टी बंधी है।


कई बार मन में विचार आता है कि वकीलों के लिए डे्रस कोड के रूप में काले कोट और काली-सफेद धारीदार पेंट को ही क्यूं चुना गया। सफेद ‘बो और काले गाऊन का ही चयन क्यूं किया गया। जबकि रंग भतेरे हैं। यह सवाल डाक्टर्स के सफेद कोट पे भी उठ सकता है। क्यूं कि चर्चा आदरजोग कोर्ट पर चल रही है तो उसी टे्रक पे चला जाए तो बेहतर रहेगा। हो सकता है उसके सकारात्मक परिणाम सामने आ जाएं। हमें किसी की डे्रस या डे्रस कोड पे कोई एतराज नहीं मगर काला रंग समझ के बाहर। वकील साब को काले की जगह चेरी कलर का कोट पहनाया जा सकता था। भूरी या चॉकलेटी कलर की पेंट और चेरी या कॉफी कलर का कोट। जेब पर उनके नाम और लाइसेंस नंबर का बेज। उनके कोट का रंग गहरा हरा या नेवी ब्ल्यू भी हो सकता था। इसी रंग से मिलती-जुलती पेंट और ‘बो*। गाउन का रंग भी काले की जगह कोई और।

हथाईबाजों ने इस बारे में कई वकीलों से चर्चा भी की, मगर कोई सार्थक जवाब नही मिला तो खुदी ने अंदाजा लगाकर काले रंग का राजफाश कर दिया। वकीलों को काले कोट को बाबा सूरदास की ‘कारी कमरिया से जोड़ दिया। सूरदार की कारी कमरिया चढे ना दूजो रंग।Ó जैसे सूरदार की काली कंबल पर कृष्ण भक्ति के अलावा कोई और रंग नही चढ सकता ठीक वैसे कानून की काली पट्टी पर कोई दूसरा रंग असर नही डाल सकता। भाईसेणों ने डे्रस कोड से मुजब पेंट-कोट बनवा लिए। कपड़ा बचा उसकी पट्टी कानून की देवी की आंखों पे बांध दी। जिसे सिर्फ-ओ-सिर्फ फैसला करना आता है।

मुकदमों के अंबार लगने के दीगर कारणों में ‘सेटिंग का भी तगड़ा हाथ। आज इस पारटी का वकील नहीं आया-कल उस पारटी का। आज ये गवाह नहीं आया-कल वो। आज इस आरोपी की हाजरी माफी-कल उस की। इन सब का नतीजा-‘तारीख-पे-तारीख..। तारीख-पे-तारीख..। कई बार तो अदनी से धाराओं के मुकदमें सुलटाने में नस्लें खप जाती है। इस पे लतीफा याद आ गया- सत्तर साल के आरोपी दद्दू को नीचे से ऊपर तक घूरने के बाद जज साब भड़के और बोले-‘इस उम्र में लड़कियों को छेड़ते हुए शरम नही आई। इस पर दद्दू पोपली जुबान से बोले-‘हुजूर मुकदमा पचास साल पुराना है। जिस मोहतरमा को छेडऩे का आरोप मुझ पे लगा है, वो भी अपने पोते के साथ आई हैं..। वो देखिए.. बाहर बेंच पर बैठी है..।

हथाईबाजों ने लंबित मुकदमों का पहाड़ बढने का जो एक और कारण खोजा, उनमें अंट-शंट याचिकाएं भी। कुत्ते ने बिल्ली को घूर लिया-चलो कोर्ट में। चूहे ने कुत्ते को दौड़ा दिया-चलो कोर्ट में। कहने का मतलब ये कि लोग बाग छोटी-टुच्ची बातों को लेकर कोर्ट चढने लगे हैं। माना कि यह उनका अधिकार है, पर भाई कर्तव्य नाम की भी तो कोई चीज है। तुम अधिकारों के लिए तो रोना-धोना मचा देते हो और कर्तव्यों की बात पर खामोशी धार लेते हो। यह दोगळापन क्यूं भाई।

एक दारूप्रेमी ने गुजरात हाईकोर्ट में शराबबंदी के विरूद्ध याचिका दायर की है। गांधी-बापू के गुजरात में पूर्ण शराबबंदी है। सुरा प्रेमी ने दारू पीने को निजता का अधिकार बताते हुए यह याचिका दायर की। जिस पे फैसला सुरक्षित रखा हुआ है। सुना-पढा तो हैरत हुई कि उसे दारूधिकार तो याद रह गया दिन-ब-दिन महंगा होता जा रहा पेटरोल याद नहीं रहा। वो इस बाबत याचिका दायर करता तो मजा ही कुछ और था।

राजस्थान में बिजली बिल में बिजली के खरचे के अलावा दुनियाभर के खरचे शुमार। स्थायी शुल्क। रखरखाव शुल्क। ढीमका शुल्क। पूछड़ा शुल्क। कोई इस के खिलाफ तो कोर्ट में नहीं गया। हैरत होती है कि भाईसेणों को दारू पीने के अधिकार की बात तो याद रह गई। सामूहिक हित के लिए उठाए जाने वाले कर्तव्य भूल गए। ऐसे याचि पे जुरमाना ठुकना चाहिए। याचिका रद्द होनी चाहिए। उम्मीद है होगा भी ऐसा ही।

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