वादी-जीवी

ज्यादा फरक नही है। है तो सिरफ इतना कि हमने ‘वादी कहा था और उन्होंने ‘जीवी। वो ‘जीवी कहें या हम ‘वादी इसमें कहने-लिखने भर का अंतर है। अर्थ एक। अगर किसी ने दो का पहाड़ा बोला और एक ने टू का टेबिल तो क्या संख्या बदल जाएगी? नहीं बदलेगी। वहां एक दुदु.. और यहां टू वन जा टू..। कान सीधे तौर पे पकड़ों या घूमा फिरा के। बात एक ही। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

‘दो पे दो मिनट का नया मौन याद आ गया। याद क्या आया, अभी तो वह खबरिया चैनल्स से गायब भी नही हुआ था। लगभग सारे चैनल्स राग दो मिनट दोहरा रहे थे। क्या एबीसीडी और क्या इएफजीएच। कहने का मतलब ये कि ‘ए से लेकर ‘जेड तक में नए मौन का गुणगान हुआ। अपने यहां ‘द की अहमियत कुछ ज्यादा ही नजर आती है। बस, दो मिनट मे आया। दो मिनट में आप का काम हो जाएगा। सर दो मिनट और सरीखे जुमले दिन में बीसियों बार सुनने को मिल जाते है। कई बार दो का स्तर गिरकर एक मिनट पहुंच जाता है तो कभी बढ कर पांच मिनट। आप ने इस दौरान और किसी संख्या का जिक्र नही सुना होगा।

कौन कहता है-‘तीन मिनट रूकिए। किस ने सात या चार मिनट का सहारा लिया। घूम-फिर के बात दो और पांच मिनट पे आकर ही रूकती है। यह बात दीगर है कि ‘दो मिनट आधे घंटे में बदल जाए। स्याणे लोग पूछ भी लेते हैं-‘आप का एक मिनट, कितने मिनट का होता है। हथाईबाजों का कहना है कि जब बात ‘दो की चली है तो उसे पटरी सेे ना उतारा जाए। हम तो कहें कि जो लोग ‘दस का दम भरते हैं उन्हें ‘दो का दम आजमाना चाहिए। अपने यहां किसी के रामप्यारा होने के बाद श्रद्धा सुमन अर्पित करने की परंपरा पुरातन है। उस दौरान दो मिनट का मौन रखा जाता है। यह बात समझ में नही आई कि यहां भी ‘दो का सहारा क्यूं लिया गया। दो की जगह एक या तीन-चार मिनट के मौन की प्रथा क्यूं नही बनाई गई। आप को हैरत होगी कि जिस कांगरेस ने देश पर 60 साल तक शासन किया उसी कांग्रेस के सांसदों ने ‘दो मिनट के मौन की चिंदिया बिखेर दी।

हुआ यूं कि कांगरेस सांसद राहुल गांधी सदन में बजट चर्चा के दौरान भटक गए। वो तीसरी दफे सांसद चुने गए लेकिन उन्हें संसदीय नियमों का तनिक भी ज्ञान नहीं। वो बजाय बजट पर अपनी राय व्यक्त करने के, कथित किसान आंदोलन पर आ गए। दूसरे सदस्य हंसते रहे। लोकसभाध्यक्ष टोकते रहे मगर वो लगे रहे। यहां तक कह दिया कि आंदोलन के दौरान दो सौ किसान मारे गए। पता नही वो यह संख्या कहां से लाए। इतने किसान मारे गए और मीडिया को भनक तक नही लगी। इतने किसान फौत हो गए और पत्ता भी नही खनका। उसके बाद उनने सरकार को इस बात का उलाहना दिया कि उसने किसानों को श्रद्धांजलि तक नही दी।

फिर हूंकार भरी कि मैं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। दो मिनट का मौन रखता हूं। अपने बाल सेनापति के समर्थन में सदन में बिराजे कांगरेसी सांसद भी खडे हो गए और दो मिनट के मौन की जगह बत्तीस सैकंड में ही सब कुछ निपटा दिया। नियम के अनुसार यह शोकाभिव्यक्ति भी गलत थी। इसके लिए लोकसभाध्यक्ष शोक प्रस्ताव पढ़तेे हैं उसके बाद पूरा सदन खड़ा होकर दो मिनट का मौन रखता है। अपने राहुल बाबा और उनके चंगुओं-मंगुओं ने दो मिनट के मौन का भी कचूमर निकाल दिया।

अब आते हैं उनके और हमारे कहे पर। हमने कहा ‘वादी उन्होंने ‘जीवी। एक हिसाब से दोनों में ज्यादा फरक नहीं। वो वादी प्रकृति वाली नहीं। वो वादी कोर्ट-कचहरी वाला वादी-प्रतिवादी नहीं वरन उसके तार अवसरवादिता से जुड़े हुए। सत्यवादी। परंपरावादी। यथार्थवादी। राष्ट्रवादी। इनमें से वादी हटा कर उनने ‘जीवी घुसा दिया। जैसे श्रमजीवी। जैसे बुद्धिजीवी। जैसे परजीवी। जैसे उभयजीवी वैसे आंदोजनजीवी। ऐसा किस ने कहा-कब कहा और किस संदर्भ में कहा-आखा देश जानता है। जो श्रम से खाता है-वो श्रमजीवी। जो बुद्धि की खाता है वो बुद्धिजीवी। जो पराए भरोसे जीता है वो परजीवी और जो आंदोलन की आड़ में अपनी कमाई करता है। अपने हित साधता है वो आंदोलनजीवी। आंदोलन करे सो ‘वादी और आंदोलन से स्वार्थ साधे वो ‘जीवी। हमारा वादी और उनका जीवी। दोनों में कोई खास अंतर तो नहीं।