वेदों के नियमानुसार जीवन निर्वाह ही मनुष्य का धर्म

वेदों के नियमानुसार जीवन निर्वाह ही मनुष्य का धर्म है। वेदों की उत्पत्ति सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही हुई। कहना अनुचित नहीं कि वेद धर्म का संविधान हैं। इनकी आज्ञा है कि प्राणीमात्र का प्रयत्न दुखहीन शाश्वत सुख पाने के लिए है। अत: दुख हीन शाश्वत सुख पाने का भ्रांतिहीन प्रयत्न ही वास्तविक धर्म है। जो प्रयत्न अंतर्मुखता की प्रेरणा दे, वह धर्म है और जो बहिर्मुख करे वह अधर्म है यही सार्वभौम सार्वकालिक धर्म की परिभाषा है।

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित

अर्थात धर्म का जो नाश करेगा, धर्म उसका विनाश कर देगा और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। भारतीय संस्कृति में जीवन के प्रत्येक छोटे-बड़े कार्य धर्म के आधार पर व्यवस्थित होते हैं। धर्म पर ही यह संस्कृति अवलंबित है। धर्म की उपेक्षा से ही मनुष्य समाज का पतन होना आरंभ होता है। ध्यान देने योग्य यह है कि धर्म का स्पष्ट अर्थ है कल्याण करना। मनुष्य एक प्राणी है अत: उसके धर्म अनेक नहीं हो सकते। विश्व के किसी धर्म में ऐसा कोई मौलिक अंतर नहीं जिससे उसे अलग धर्म कहा जा सके। अनादि सनातन धर्म ही मानव धर्म है।

चिंतन करने योग्य विषय यह है कि नूतन नवीन धर्म अर्थात नया धर्म कैसे उत्पन्न हो सकता है जबकि मनुष्य प्राचीन प्राणी है। जो मनुष्य का सृष्टा है उसने उसे आदि काल से ही उसका धर्म दिया है। जल का धर्म स्वादुपन जब विकृत हो जाता है तब जल को शुद्ध करना पड़ता है। इसी प्रकार महापुरुषों ने मानव की विकृति को दूर करने के प्रयत्न बार-बार किए हैं। इन सब प्रयत्नों के परिणाम जिस स्वरूप को प्रकट करते हैं वही वास्तविक धर्म है। इसी से उसे सनातन धर्म कहते हैं।

धर्म का स्वरूप व्यक्ति की पात्रता, समय, स्थान और कार्य के अनुसार निश्चित होता है जो कार्य एक के लिए विशेष धर्म है वही दूसरे के लिए अधर्म हो सकता है जैसे लौकिक दृष्टि से एक औषधि रोगी के लिए उपयोगी है और स्वस्थ व्यक्ति के लिए हानिकारक है। जल्लाद के लिए निश्चित अपराधी को फांसी देना उचित धर्म है और दूसरा यही कर्म करे तो प्राण दंड तथा अधर्म का भागी होगा। इस प्रकार धर्म में स्वधर्म और परधर्म का भेद होता है। कौन सा कर्म कब किसके लिए धर्म है यह जानने का साधन वेद और शास्त्र हैं अर्थात वेदों व शास्त्रविहित कर्म ही धर्म है।

मनुष्य जन्म उपरांत सभी प्रकार के गुण धर्म, कर्म, शिक्षा दीक्षा आदि मृत्युपर्यंत तक सीखता ही रहता है। ऐसी अबोध मनुष्य जाति को यदि आरंभ से ही ईश्वरीय आदेश रूप वेद शास्त्र न प्राप्त होते तो मनुष्यता नष्ट हो गई होती। जीवन को सुखद, सहज व सुदृढ़ बनाने के लिए वेदों में धर्म आधारित आश्रम व्यवस्था का वर्णन किया गया है । चार आश्रम ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन की उपयोगिता सर्वविदित है और यदि मनुष्य परलोक की सत्यता में विश्वास करता है तो उसे वानप्रस्थ और संन्यास के महत्ता भी समझने में कठिनाई न होगी।

सामान्य धर्म, विशेष धर्म : यह सब जानते हैं कि हिंसा अधर्म है परंतु प्लेग फैलने के समय चूहों को मारना पड़ता है। उस समय यह हिंसा एक विशेष धर्म बन जाता है। इससे भी सरलता से समझा जा सकता है चिकित्सक का विशेष धर्म जब वह किसी रोगी के विकृत घाव में स्वस्थ व्यक्ति के शरीर का भाग काट कर लगा देता है। अर्थात विशेष धर्म विशेष अवसर तक ही सीमित होते हैं। धर्म का निर्णय घटनाएं नहीं अपितु नियम करते हैं।

धर्म का प्राप्य : जिससे अलौकिक उन्नति तथा पारलौकिक कल्याण की प्राप्ति हो वह धर्म है। धर्म से ही लोक और समाज का धारण होता है। अनुशासनहीन समाज या व्यक्ति पतन के गर्त में गिरेगा ही अतएव धर्म से ही अभ्युदय होता है। हमारे सत्कर्म ही प्रारब्ध बनते हैं और वही दूसरे जन्म के ऐश्वर्य, वैभव, सुख के कारण होते हैं। इसके विपरीत अधर्म को धारण करने वाले दु:ख पीड़ा को प्राप्त होते हैं।

धर्म के आचरण से भोग वृत्ति का नाश होता है। हृदय की शुद्धि होती है। इस प्रकार कर्मों में असंगता की प्राप्ति होती है जहां कर्मों में असंगता की सिद्धि हुई, मोक्ष स्वत: सिद्ध हो जाता है।

धर्म त्याग का अर्थ है : उच्छृंखलता की स्वीकृति विनाशक ही होती है। क्या अग्नि अपने धर्म का त्याग करके भस्म बन जाती है मनुष्य अपना धर्म त्याग देगा तो पशु हो जाएगा। पशु होकर भी उसका निस्तार नहीं होगा। धर्म से दूर होकर मानव जाति विनाश की ओर जा रही है।

धर्म परिवर्तन : वेदोनुसार सनातन धर्म में धर्म परिवर्तन के लिए कोई स्थान ही नहीं है। यह स्वीकार करना ही होगा। कोई भी धर्म जो परिवर्तित हुआ है वस्तुत: संप्रदाय ही है। सार्वभौम अनादि धर्म अर्थात सनातन धर्म जो ज्ञान जन्म, वाणी के साथ ही मनुष्य को प्राप्त हुआ है वह कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकता। वह तो मनुष्य को सृष्टि के साथ ही मिला है। ईश्वरीय धर्म ही सनातन धर्म है।