म्हारी… म्हारी…. छाळिया नै..

दोहरेपन को लेकर जितनी भी कहावतें-अडिएं-ओखाणे और मुहावरे हैं, वो सब उन्हें समर्पित। दोगळेपन को लेकर जितनी भी किवदंतियां प्रचलित हैं, वो सब उनको चढावे के रूप में अर्पित। क्या अदा है। कितनी हसीनअदा है। यह अदाएं देखकर ‘इक चेहरे पे कई चेहरे.. लगा लेते हैं लोग.. वाले सुर कानों में घुलते-गूंजते हैं। एक कान में ये सुर तो दूसरे कान में-‘असली चेहरा सामने आए..नकली सूरत छुपी रहे.. जैसे संशोधित सुर। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


संशोधित सुर के बारे में पढ़कर कई लोगों ने जेहन में खदबदाहट हो रही होगी। ऐसा होना स्वाभाविक है। संशोधित सवाल सुने। संशोधित जवाब सुने। संशोधित बिल देखे। संशोधित आदेशों के बारे में देखा-पढा-सुना। संशोधित टेंडर देखे। संशोधित निविदाएं देखी। संशोधित सूचियां देखी। संशोधित परिणाम देखे। संशोधित के तार संशोधन से जुड़े हुए। किसी को संशोधन के साथ पेश करना या परोसना उसका संशोधित रूप कहलाता है। इसका और खुलासा करें तो दो-चारेक मिसालें आम हैं। नाम-रामलाल और छाप-लिख दिया राजलाल तो उसमें संशोधन कर रामलाल कर दिया जाता है।

संख्या है 420 और लिख-छप गई 440 तो उसे सुधार कर 420 कर दिया जाता है। निविदा शुल्क पांच हजार रूपए और छाप-लिख लिखिज चार हजार, तो उसमें संशोधित कर पांच हजार कर दिया जाता है। कई बार टेंडर खोलने की तारीख में परिवर्तन किया जाता है, या कि कुछ बिन्दु बदले जाते हैं, तो संशोधित निविदाएं प्रकाशित करवाई जाती है। यहां तक तो ठीक है। संशोधित सुर-स्वर के बारे में सुन कर हैरत होना लाजिमी है।


मूल सुर शब्द है-‘नकली चेहरा सामने आए.. असली सूरत छुपी रहे..। यह एक हिन्दी फिलिम का गीत है। नाम है इज्जत। जिसमें धर्मेन्द्र मुख्य भूमिका मे है। लाइन है-‘क्या मिलिए ऐसे लोगों से , जिन की फितरत छुपी रहे.. नकली चेहरा सामने आए.. असली सूरत छुपी रहे..। हथाईबाजों ने चेहरे बदल दिए। चेहरों में संशोधन कर दिया। सुर के असली-नकली में संशोधन कर दिया। सुर के असली-नकली आगे-पीछे कर दिए। नकली की जगह असली और असली की जगह नकली डाल दिया। एक हिसाब से देखा जाए तो मूल और संशोधित सुरों में दिल चीरती सच्चाई है।

देश-दुनिया में भतेरे ऐसे लोग हैं जिनके चेहरे पे चेहरे लगे हैं। वो कहते क्या हैं, करते क्या हैं और होता कुछ और है। इस के लिए देश-दुनिया में ताक-झांक करने की जरूरत नहीं। ऐसे लोग अपने आस-पास ही मिल जाएंगे। घरों में मिल जाएंगे। घर-घर में मिल जाएंगे। वैसे लोगों पर-‘इक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग.. वाले सुर भी खरे उतरते नजर आते हैं।
दोहरे और दोगळेपन को कहावतों-मुहावरों का पिटारा खोल के देखें तो-‘ हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और नजर आएगा। इसको अपनी मायड़ भाषा में देखे तो ‘म्हारी-म्हारी छाळिया ने दूधो-दही पा’ऊं.. नारियों आवै तो सोटा सूं धमकाऊं.. सुनाई देगा। कहावतों की भाषा अलग हो सकती है। कहने का अंदाज अलग हो सकता है मगर भाव एक। भावना एक। अर्थ एक। मतलब एक। परिणाम एक। कान इस हाथ से पकड़ो या उस हाथ से, कोई फरक नहीं पड़ता।


हथाईबाजों ने सुर-लय-ताल से लेकर कहावतों-मुहावरों और आडियो-ओखाणों के जो उदाहरण दिए वो नेतों पर अक्षरस खरे उतरते हैं। नेते लोग इन सबमें सने हुए। कई बार ऐसा लगता है। मानो अभी-अभी उन में डुबकी लगा के निकले हों। नेतों के रोम-रोम में जुबान। वो जुबान से कम नाक-कान से ज्यादा बोलते हैं। जुबान से बोलते हैं तो ऐसा लगता है जैसे ‘बक रहे हों। ना उनके बोलों में वजन ना ठीमरता। जुबान से पलट जाना उन की आदत में शुमार। राज्य सरकार का हालिया फैसला ‘म्हारी -म्हारी छाळिया ने.. वाली कहावत को चरितार्थ करता नजर आ रहा है।


सरकार ने विधायकों के किराया-भत्तों में जोरदार बढोतरी की। पहले यह आंकड़ा तीस हजार था, अब पचास हजार कर दिया। इस फैसले से विधायक खुश हुए पर हमें इसमें म्हारी-म्हारी छाळिय और हाथी के दांत की बदबू आई। सरकार कोरोना संकट के नाम पर एक तरफ राज्य सरकारों का वेतन कुतर रही है। सरकार खजाना खाली होने का राग आलाप रही है। सरकार कथित रूप से खरचों में कटौती करने का नाटक कर रही है। सरकार पइसों को लेकर भांत-भांत का रोना रो रही है मगर दूसरी ओर विधायकों के लिए एक झटके में बीस हजार प्रतिमाह की बढोतरी। यह असली चेहरा सामने आए और म्हारी-म्हारी छाळिय.. नहीं तो और क्या है।