आपत्ति शुल्क !

समझ में आ भी गया-नहीं भी आया। जिनकी समझ में आया उनके विचार की धाराएं अलग और जिन की समझ में नहीं आया उनके विचार की कई धाराएं। कई लोग नो कमेंट्स के बॉक्स में। आपणे यहां कहा जाता है-‘एक नन्नो सौ दुख टाळे। इसपे और ज्यादा सिणगार किया जाए तो ‘नो कमेंट्स कहा और मामला नक्की। जिनने समझा उनने कहा कि-‘पहाड़ रोकने के लिए ऐसा करना जरूरी था। इसकी पलट में लोकतंत्र के कथित पहरूओं का कहना है कि यह आपत्ति पे आपातकाल थोपने जैसा कदम है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

समझ और ना समझ के माने पक्ष और विपक्ष। यह भारतीय लोकतंत्र की विशेषता है। कई बार कई विशेषताएं कमजोरी समझी जाती है। कई बार आप के अहिंसा के पुजारीपन को लोगबाग कायरता समझ बैठते हैं। आप के बड़प्पन को लोगबाग आप की कमजोरी समझ बैठते हैं। वो नहीं जानते कि जिस दिन सर्जिकल स्ट्राइक होगी, उस दिन सारे फुलफुलिए बंद हो जाएंगे। उगलते बनेगा-ना निगलते।

इधर चूंटिएं-उधर गिलगिलिएं। ले बेटा सेल्फी ले.. ले रे..। लोकतंत्र में पक्षों का होना जरूरी वरना नादिरशाही का खतरा। तानाशाही ऊफान पर। पिछले दिनों से कुछ अजब-अजीब हो रहा है। पक्ष-विपक्ष तक तो ठीक है। यहां तो पक्षकारों की संख्या दिन-ब-दिन बढती जा रही है। गली-गली में पक्षकार। हर गली में पक्षकार। हां और ना के बीच ‘अ से लेकर ‘ज्ञ तक पक्षकार ही पक्षकार।

हथाईबाज देख रहे हैं कि विरोध करना भी पेशन और फैशन बनता जा रहा है। हर बात का विरोध। बात-बात का विरोध। किसी अनुचित कदम का विरोध करना तो समझ में आता है। विरोध के लिए विरोध करना ठीक नही है। जहां तक अपनी व्यक्तिगत राय है। शासन-प्रशासन ज्यादातर फैसले जनता की भलाई के लिए ही लेते हैं। बाय द वे कोई ऊंच-नीच हो जाए तो उन में संशोधन किया जा सकता है। जाजम पे बैठ के चर्चा की जा सकती है। बीच का रास्ता निकाला जा सकता है। पण, ऐसा हो नही रहा। एक पक्ष अपने घमंड-में चूर-दूसरा पक्ष अपने गुमान में। पिसते हैं हम-आप।

लोकतंत्र में एतराज जताने का अधिकार सब को है। खुद शासन-प्रशासन इसके लिए आमंत्रण देते हैं। आपत्तियों पर आपातकाल लगाना उचित नहीं। इसकी पलट में आपत्तियों का पहाड़ रोकने के लिए ऐसा करना उचित भी कहा जा सकता है। आज इस एतराज पे पहरे बिठाए तो कल दूसरी आपत्तियों पर संगीने तन सकती है। इनने एतराज शुल्क लगाया कल को वो शुल्क बढा भी सकते हैं। इनने पांच सौ फीस थोपी तो हम एक हजार थोपेंगे। उनने एक हजार शुल्क लगाया तो हम दो हजार कर देंगे। ऐसा चलता रहा तो मुंह सिल जाएंगे। कदम रूक जाएंगे। हाथ बंध जाएंगे। फायदा ये कि ‘बैठे-बैठे क्या करें-आओ एतराज जताते हैं वाला खेर्ल रूक जाएगा।

आपत्तियां-एतराज जताने के लिए आम लोगों से आवेदन लेना मजबूत लोकतंत्र का एक हिस्सा है। मतदाता अथवा सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों की सूचियों को अंतिम रूप देने से पहले पठन-पाठन का उपक्रम कर एतराज आमंत्रित किए जाते हैं। जिन्हें आपत्ति है, वो दर्ज करवा सकता है। उनका कथित निवारण करने के बाद आगे की कार्रवाई की जाती है। सूचियों का पठन-पाठन आम सभाओं में सार्वजनिक रूप से किया जाता है। यह एक प्रक्रिया है जो अरसों-बरसों से चली आ रही है। अंदरखाने क्या होता है-यह भी किसी से छुपा हुआ नही है। अगर आपत्तियों के लिए उगाही शुरू कर दी जाए तो सोचनीय बात है। एतराजों पर फीस के पहरे बिठाना उचित नही है। हैं तो इसलिए ताकि फालतू की आवक रोकी जा सके।

हम आपत्ति-एतराजों के खिलाफ नहीं। यदि एतराज जायज है तो जरूर दर्ज करवाइए और अगर यह कार्रवाई किसी को परेशान करने के लिए की जा रही है-या टाइम पास करने के लिए की जा रही है तो उसको रोकना भी जरूरी है।

देश के बाइस राष्ट्रीय विधि विश्व विद्यालयों की कल-परसों हुई प्रवेश परीक्षा ‘क्लेट के प्रश्न-पत्र में परीक्षार्थियों को एतराज दर्ज करवाने के लिए मोटी रकम खरच करनी पड़ गई। हर एतराज के एक हजार रूपए। किसी ने एक आपत्ति दर्ज करवाई तो एक हजार-दो करवाई तो दो हजार और पांच करवाई तो पांच हजार रूपए। जिनने ज्यादा अपत्तियां दर्ज करवाई उनका मीटर ऊपर की ओर बढता रहा। देश में संभवतया यह पहली परीक्षा है, जिसमें आपत्तियां दर्ज करवाने में बदले पैसे वसूले गए।

इस पर दो धाराएं। एनएलयू कंसोर्टियम का कहना है कि फालतू की शिकायतें-आपत्तियां और एतराज रोकने के लिए ऐसा किया गया। इसकी पलट में हवा ये कि आपत्तियों के नाम पर उगाही की जा रही है। एतराज पर आपातकाल थोपा जा रहा है। आज एनएलयू ने ऐसा किया कल और कोई संस्थान वसूली शुरू कर देगी। जो हैं वो सब के सामने हैं। वसूली उचित हैं तो है-अनुचित है-तो है। इलाज करना विशेषज्ञों के जिम्मे। जागरूक नागरिक होने के लिहाज से हम-आप की भागीदारी भी जरूरी।

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