हमारे चालीस लाख तो गए नीं…

भाए की बोली में कहे तो चालीस लाख गिया..। शहरिया कहेगा-‘खाया-पीया कुछ नहीं..गिलास फोड़ी सो अलग..। हम-आप से पूछें तो जवाब मिलेगा- थावस रखते तो हंसी का पात्र नहीं बनना पड़ा और भाऊ की भाषा में बात करें तो वही बोल फूटेंगे, जिसको शीर्षक के रूप में लटकाया गया है। वो अगाड़ी देखेंगे ना पिछाड़ी, सीधे यही कहेंगे-‘वरी, हमारे चालीस लाख तो गए नीं..शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


बात चालीस रूपए या चालीस हजार रूपए की नही है। चालीस लाख या चालीस करोड़ भी चले जाएं तो सरकार की सेहत पे कुछ फरक नहीं पडऩे वाला। धमीड़े तो आप आदमी लेता है जिसके ‘कर के पैसों को इस तरह बरबाद कर दिया जाता है। आम क्या समझते हैं कि मंतरियों, नेतों अफसरों और लाल फीताशाही पर होने वाला खरचा मिस्टर इंडिया ओढ़ता है? या कोई जिन्न अंकल चिराग से निकलकर कहते है क्या हुक्म है मेरे आका..। और आका हुक्म देते हैं कि फलां.. फलां इंतजाम कर दो। आदेश की पालणा में जिन्न सारी व्यवस्थाएं कर के वापस चिराग हाउस में चला जाता है।

हमें पता है कि जिन्न और चिराग वाली कहानी है। जैसे राजा-रानी की कहानी। जैसे शिकार और शिकारी की कहानी। जैसे परियों की कहानी। जैसे खरगोश और कछुए वाली कहानी। जैसे चंदा मामा की कहानी वैसी अलादीन के चिराग की कहानी। कई बार मन में विचार आता है कि कहानियों को इस प्रकार लिखना-घडऩा-कहना चाहिए जिसमें तनिक सच्चाई नजर आए। हम यह नहीं कहते कि कहानियां सौ टका टंच हो। वैसे सच्ची कहानियों भी होती है। अब तो अपराध कथाओं का दौर लगभग समाप्त हो गया, वरना एक जमाने में कुछ पत्रिकाओं में ऐसी कहानियां ही छपती थी। कई बार किरदारों के नाम बदल दिए जाते थे, वरना कहानियां सच्ची।

यह बात विक्रम-बेताल वाली कहानियों पर लागू नही होती, पर फसाने ऐसे हो जिनमें सच्चाई का तड़का नजर आए। जिन्न-चिराग वाली कहानी तो शुरूआत से ही बनावटी लगती है। भला चिराग रगडऩे से कोई जिन्न पैदा हुआ है? हमने कहानियों में सुना था कि जिन्न पेड़ों पे रहते हैं। किसी कहानी में जिन्न को मसाण-कब्रिस्तान निवासी बताया गया है और यहां चिराग में जिन्न। भला इत्ता बड़ा जिन्न अदने से चिराग में बसर कैसे कर सकता है। क्यूंकि कहानी है, लिहाजा हमने उसे कहानी के रूप में ही लिया। पढी-सुनी और आगे परोस दी। खालीपीली टाइम पास।


कई बार विचार आता है कि यह कहानी सच्ची होती तो? इसका तो कोई जवाब नहीं। चिराग किस के पास होता। कोई नही जानता। अलादीन का अपहरण हो जाता या फिर टपका दिया जाता। चिराग शासन-प्रशासन के हाथ लग जाता तो सारे काम जिन्न अंकल ही करते। आज के संकट के में तो चिराग और जिन्न दोनों के किरदार जोरदार। जिन्न कोरोना को छू-मंतर कर देता। हो सकता है, वो खुद कोरोनाग्रस्त हो जाता। कुल जमा कहानियां चलती आई है और चलती रहेंगी।

बात चालीस की आई है तो उसके तार अलीबाबा से भी जोड़े जा सकते हैं। वो कहानी भी अजब-अजीब। खुल जा सिम.. सिम और बंद हो जा सिम..सिम..। गोया कि गुफा का दरवाजा, दरवाजा ना होकर सियासी पार्टी का गुमास्ता हो। आलाकमान ने कह दिया रात तो रात-दिन तो दिन। किसी ने आत्मचिंतन की बात की तो अन्य चंगु-मंगु इस तरह ‘दोळे पड़ जाएंगे, मानो उनने सच्ची बात कह के बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है।
पर हथाईबाज जिस चालीस की बात कर रहे हैं उसका नाता ना तो जिन्न अंकल से-ना अलीबाबा से। चालीसा हमारी अपनी। उसमे हम भी और आप भी। चालीस का नाता आम आदमी से जुड़ा। इसका मतलब चालीसवां भी नहीं मगर चालीस का जोरदार बगार। जब वहां बैठना ही नही था तो फालतू को गांगत क्यूं गाई। जब वहां बिराजना ही नही था तो चालीस लाख का चूना क्यूं चुपड़ा।


नगर निगम उत्तर जोधपुर का कार्यालय वापस पॉलिटेक्निक कॉलेज परिसर में शिफ्ट किया जा रहा है। पहले यह तय हुआ था कि इसका ऑफिस सोजतीगेट के अंदर स्थित निगम के पुराने भवन में संचालित होगा। इस भवन का स्वर्णिम इतिहास रहा है। पहले नगर पालिका फिर नगर परिषद और फिर नगर निगम का सफर यही से तय हुआ। विगत वर्षों में इसे पॉलिटेक्निक कॉलेज परिसर में बनाई हेरिटेज बिल्डिंग में शिफ्ट कर दिया गया था। अब दो निगम हो गए तो तय हुआ कि उत्तरी जोन को वापस पुरानी इमारत में शिफ्ट कर दिया जाए। इस चक्कर में धोवाधावी-रंगाई-पुताई-टीम-टाप-बणाव-सिणगार-प्लास्टर-क्लास्टर पर चालीस लाख फूंक दिए। उत्तरी जोन से नव निर्वाचित पार्षदों का शपथग्रहण समारोह भी यहीं हुआ। अब मेयर साहिबा ने यहां बैठने से इंकार कर दिया। कह दिया कि पार्किंग की सुविध नही है। जगह ओछी है। इमारत भी ठीक नही है। पार्षदों ने भी उनकी ‘हां में ‘हां मिला दी।
अब उत्तरी जोन का आफिस नई इमारत मे ले जाने की तैयारियां हो रही है। एक बिल्डिंग में दो निगम। आधा तुम्हारा-आधा हमारा। हमें इस बात का मलाल कि तुम्हारे नाज नखरों में हमारी खून-पसीने की कमाई के चालीस लाख रूपए चुपड़ीज गए नीं।