उठावणा जंग

सवाल यह नही कि किस ने किया। सवाल यह नही कि क्यूं हुआ। अफसोसनाक बात यह है कि दो-चारेक स्थान ही तो रह गए थे, जहां शांति की अपेक्षा की जाती है। रहती भी है। रहणी भी चाहिए, मगर वहां भी सेंध लग गई। शांति में छेद हो गया। इसे रोकना होगा, वरना ऐसा ना हो कि यह आंच आग बन कर चिता तक पहुंच जाए। रोको-रोको-रोको। इसे सब मिलकर रोको। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

ऊपर का पेरा पढ कर होजकोज होणा वाजिब है। ऐसा कभी-कभार ही होता है। ज्यादातर मे सुधि पाठक ‘छमके की खुशबू से ही भांप जाते हैं कि ‘तेहरी या ‘साक का स्वाद कैसा होगा। कुछ लोग इस पर भी सवाल उठा सकते हैं कि स्वाद चाहिए चटोकड़ो को। साधु को कैसा स्वाद। बात यह नही है, बात यह है कि जब बात स्वाद की चल रही है तो साधु को बीच में क्यंू लाणा और जब पधार ही गए हैं तो जैसा भोजन हैं-हाजिर है। आप आइए-आप की टोली-मंडली को लाइए। प्रभु का प्रसाद व दक्षिणा ग्रहण कीजिए और सम्मान के साथ विदाई। हमने ‘छमके को सुधि पाठकों से जोड़ा। सुधि पाठक में से जोधपुर के पाठकों को छांटना हमारे बस की बात नही। हमारे तो क्या किसी के बूते की बात नहीं। हमे क्या पता कि कितने लोगों ने हथाई की पढाई की और वो लोग देश-विदेश के किस स्थान से हैं।

हमने स्थानीय पाठकों का जिक्र इसलिए किया कि यहां छमकेदारों का बहुमत है। जोधपुर के बारे में कई बातें खास हैं। यहां की मावे की कचौरी और मिर्चीबड़ों की खुशबू सात समंदर पार तक बिखरती है। उन चटोकड़े प्रबुद्ध नागारिकों के साथ-साथ खंडों-पत्थरों पर भी ठप्पा। लोग हमारी शान में कहते हैं। लिखते हैं और हम-आप उसी शान से सुनते भी हैं-‘जोधपुर के खंडे और खावण खंडे जगचावे हैं।

सुन कर यह कहने वालों को एक आग्रह जरूर करते हैं कि ‘थुथका फैंको भाई। खंडे-खावणखंडे के चक्कर में भूली गई परंपरा याद दिलवाना हमारी जिम्मेदारी। यहां का प्रेम। यहां का सद्भाव। यहां का समभाव। यहां की अपणायत। यहां की मेहमानवाजी। यहां की मीठी बोली और हथाईयां। अमेरिका भले ही सुपर पावर की श्रेणी में आता हो मगर वहां हमारे जैसे मिर्चीबड़े नही मिलते। हमारे जैसी मावे की कचौरी नही मिली। हमारे जैसे घेवर-लड्डू और गुलाब-जामुन नही मिलते। आप एक फेरा वाशिंगटन की गलियों का लगा आओ और एक फेरा जोधपुर के राखी हाउस से लेकर जालोरी गेट के अंदर का। पता चल जाएगा कि अपणायत ज्यादा कहां मिलती है। अपणायत के इस शहर में जब नई शुरूआत होते देखी तो अच्छा नही लगा। तभी तो उसे वही थाम देने की अपील की।

बात घूमा-फिरा कर वापस पहले पेरेग्राफ की ओर ले आए। ऐसा करना इसलिए जरूरी कि कागद और कारे करने हैं। ऐसा नही करना होता तो ‘एक था राजा-एक थी रानी-दोनों टपक गए-खतम कहानी और उसके बाद ‘आप-आप रे घरे जाओ कह के ओछी में काट देते। पर ऐसा इसलिए नही किया कि शुरूआती दौर में जिन-जिन बातों का जिक्र किया गया-उनका खुलासा करना जरूरी। मसलन शांति में छेद। आंच-आग और चिता।

बात करें चिता की तो भाई जीवन का सफर उसी में समाकर खल्लास होणा है। जन-परिजन-संगी-साथी वहीं तक। थेपड़ी दी-कार खींची और वापस वही दिनचर्या। अब सवाल ये कि जब चिता खुद अपने आप में आग का भंडार है तो आंच वहां तक पहुंचने की बात समझ में नही आई। आग की आंच तो समझ में आती है। आंच आग तक पहुंचना-समझ से बाहर। यह तो उलटा-पुलटा हो गया। हुआ है, तभी तो रोकने की गुजारिश की गई-वरना हमें क्या पड़ी जो सीधे को उलटा कहें।

अपने यहां इक्का-दुक्का मौके ऐसे आते हैं तब पूर्णतया शांति नजर आती है। अंदरखाने भले ही भांडे खनकें बाहर खैरियत दिखती है। कुछ अवसर ऐसे होते हैं तब सब-कुछ शांतिपूर्वक हो जाने की प्रार्थना की जाती है। भगवान, छोरे-छोरी का ब्याव राजी-खुशी निपट जाए। भगवान, बींदणी-बेटी के आणे-टाणे आराम से हो जाएं। मौत-मैयत में वैसे भी माहौल गमगीन रहता है। पहले अंतिम संस्कार फिर तीसरे का उठावणा फिर बैठक फिर डांगडी रात और एंड में गंगा परसादी। इस दौरान अमूमन शांति ही रहती है, मगर शांति के शहर जोधपुर में गंदी शुरूआत हो गई। जंग में उठावणे का नाम भी जुड गया।

हवा शहर के बीजेएस क्षेत्र स्थित नट बस्ती से आई। वहां एक महिला के बारहवें के उठावणे के दिन दो पक्ष ‘ये क्यूं आया-वो क्यूं आया को लेकर भिड़ गए। जबरदस्त लाठी-भाटा जंग हुआ। चार लोग घायल हो गए। वाहनों में भी जोरदार तोड़ाभांगी हुई।

मौत-मैयत और तीज-त्यौंहार ऐसे अवसर हैं जब लोगबाग सारे शिकवे-गिले भूला कर एक होते देखे जाते हैं। ऐसे में लाठी-भाटा जंग उचित नहीं। कल को तो किसी की शवयात्रा या अंतिम संस्कार के समय भी बखेड़ा हो सकता है। तभी तो आंच को चिता तक पहुंचने से पहले ठंडी करने की अपील की गई थी। बात उठावणे की नही है। झगड़ा-फसाद-टंटे-बवाल कहीं भी और किसी भी सूरत में उचित नही है।