पुखिया बना पुखराजजी

जब-जब ऐसा होने लग जाए..। जब-जब ऐसा होता दिखे। जब-जब पुखिए अथवा कालिए सरीखे बंदे को उनके मूल नाम पुखराज या कालूराम कहके पुकारा जाने लगे और उसके हाल चाल पूछे जाएं बाल-बच्चों के बारे में खोज-खबर ली जाए तो समझ लों कि मतलब का चूरमा चूरने के दिन आ रहे हैं। यह बात दीगर है कि उसके बाद फिर घनघोर अंधेरा छा जाणा है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
आगे बढने से पहले पुखराजजी और कालूरामजी से उनके नाम का फलूदा करने के वास्ते माफी। उनके नाम का आपभ्रंश करने के लिए सॉरी। वो इसलिए कि हमारा नजरिया सदैव सब के प्रति सम्मानीय रहा है। हम जानते हैं कि गांव-ढाणियों और शहरी क्षेत्रों की झुग्गी-झौपडिय़ों में किसी के नाम के साथ खिलवाड़ करने को बुरा नही माना जाता बल्कि वहां नाम-नामों के आगे ‘या लगाना पुरातन परंपरा रही है। ऐसा अरसों-बरसों से चल रहा है। इस रवायत की शुरूआत किस ने की इसका तो पता नहीं। इतना जरूर जानते हैं कि ‘या के दरिया का इतिहास खासा पुराना है। सबसे पहले किस का नाम इस परंपरा की चपेट में आया। इसकी अधिकृत जानकारी भी किसी के पास नही होगी। कोई खालीपीली धर के उसके पुष्टि कर लेने की बात कह दे, तो कह नही सकते। कुल जमा जो चलता आया है, उसी को आगे बढाया जा रहा है।


अपने यहां किसी के नाम के आगे ‘श्री अथवा पीछे ‘जी लगाने की परंपरा रही है। इस का मकसद फलांचंद, और ढीमकामल को इज्जत बख्शना है। आगे श्री लगाएं तो श्री फलां चंद और पीछे जी लगाएं तो ढीमका मल जी उसके आगे उनकी पूंछ। जिसे सरनेम कहते है। ऐसा होने पर नाम मुकम्मिल माना जाता है। श्री फलां चंद शरमा अथवा ढीमका चंद जी बेलूनिया। कई लोग आगे श्री और पीछे जी लगा के इज्जत पे चार चांद लगाने से बाज नही आते। श्री फलाचंद जी शरमा अथवा श्री ढीमका चंद जी बेलूनिया। इस कह पलट में गांवों-ढाणियों और शहर की कच्ची-बस्तियों या कि जिन क्षेत्रों में सारक्षता दर शून्य हैं, वहां श्री-जी का कोई स्थान नहीं।


वहां किसी के नाम के आगे ना तो श्री लगता है, ना पीछे जी। अगर कोई लगा भी दे तो कोई फरक पडऩे वाला नहीं। कोई उन पर ध्यान नही देता बल्कि नाम के पीछे ‘या लगा कर पुकारेंगे और कहेंगे-‘जगिया थ्हारौ कारड आयो रे..। वहां नाम का अपभ्रंश कर पीछे ‘या लगाने की परंपरा चल रही है। पड़दादे-लड़दादे इस परंपरा को निभाते-निभाते राम प्यारे हो गए। अब दादे-बाबा और नई नस्ल इस परंपरा को आगे बढा रही है। कुछ लोग जो शिक्षित होकर आगे बढे, उनको भले ही छोड़ द्यो वरना पूरा क्षेत्र ‘या की गिरफ्त में। नाम, भोमाराम-कहते हैं भोमियो अथवा भोमलो। नाम-भंवर सिंघ। कहते है-भंवरियो। नाम-प्रेमाराम। कहते है-प्रेमियो या प्रेमलो। हथाई का शीर्षक भी उसी का एक अंग। उन क्षेत्रों के बच्चों से लेकर उम्रदराज लोग इसी परंपरा का निर्वहन करते मिल जाएंगे। या लगे नाम स्कूल के रजिस्टर से लेकर अन्य सरकारी कागजों में मिल जाएंगे। सरकारी कागज में भले ही नाम सोमनाथ दर्ज हो, पुकारा तो सोमलो या सोमियो के नाम से ही जाता है।


हथाईबाज उन महानुभावों के समर्थक, जिनने कहा था-‘गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, गुलाब तो भी गुलाब ही रहेगा। गुलाबसिंह हो तो भी गुलाब। गुलाबो हो तो भी गुलाब और गुलाबियो होवे तो गुलाब मगर कोई नेता या बड्डा मानखा ‘या को भूल कर ‘जी लगाने लग जाए तो समझ ल्यो मतलब री मनुहार चूरमा चूर रही है। भोमला भी खुश। सालों बाद ही सही। किसी ने उसे भोमले की जगह भोमसा तो कहा। भोमला तो उदाहरण है, वरना ओमिया, भंवरिया, देविया, पुखिया और कालिया सरीखे हजारों-हजार लोग खुश कि उनकी पूछ हो रही है। ठाकरसा या फलाणें नेता उनकी खैरखबर ले रहे हैं। एक गया-दूसरा आया। दूसरा गया-तीसरा आया। सब के लिए पुखिया पुखराज बना हुआ। कुछेक ने पीछे ‘जी लगा के संबोधित किया तो पुखिए की बांछे खिल गई।


हथाईपंथियों का इशारा गांवों की सरकार की ओर। राज्यों में इन दिनों बाकी बची पंचायत समितियों के चुनावों का दौर चल रहा है। पहले चरण के लिए 28 सितंबर को वोट पडने हैं। प्रत्याशी घर-घर फेरे लगा रहे हैं। सुखजी की टोली गई-मनसुखजी का दल धमक गया। चारों ओर जैरामजी की गंूज। जिस पुखिए को किसी ने लॉकडाउन काल मे भी थूक लगा के नही पूछा, वही पुखिया आज वोटों के मांगणियों के लिए पुखराज और पुखराजजी बन गया। प्रत्याशी हाथ जोड़ते हैं। जैरामजी के करते हैं। बाल-बच्चों की खैर खबर लेते हैं। काम-धंधे के बारे में पूछते हैं। पुखिया भी जानता है कि इस मान-मनुहार के पीछे क्या है। ऐसा पहली बार नही हुआ। हर चुनाव में ऐसा होता रहा है। हो रहा है और होता रहेगा। फि लहाल पुखिया ‘मुळक रहा है ‘या की जगह ‘जी लगा देख इतरा रहा है। अंधेरा होगा तब की तब देखी लगेगी, फिलहाल तो चांदनी है।