राफळरोळियो

हमारी मायड़ भाषा ऐसी है जिस के शब्दों का तोड़ ना कोई ढूंढ पाया है, ना कोई ढूंढ पाएगा। अगर कोई भाषाविद् दावा करता है तो बताए कि ‘गूमड़े को हिन्दी में क्या कहते हैं। हमारे हिसाब से यह शब्द राजस्थानी भाषा की कोख से निकला है-जिसका हिन्दीकरण कोई नही कर पाया। हम को देखो-हमने हिन्दी के ‘सारा गुड़-गोबर कर दिया को राजस्थानी के ‘राफळरोळिए में बदल दिया। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

हमें हमारी भाषा पर गर्व है। होना भी चाहिए। हमें तो क्या देश के हरेक नागरिक को अपनी मातृ भाषा के साथ-साथ राष्ट्र भाषा पर भी गर्व होना चाहिए। हम इस बात पर भी इतरा सकते हैं कि हम ने रंगों को और ज्यादा रंगदार बनाया। शरम उन लिपळे नेतों पर आती है जो इतनी समृद्ध भाषा को अब तक संवैधानिक मान्यता नहीं दिलवा पाए। आप किसी भी भाषा पर नजर डाल के देख लेना। ऐसी कोई भाषा नहीं मिलेगी जिसने रंगों को और ज्यादा चटकदार बनाया हो। हमने ऐसा किया भी और दुनिया-देश को दिखाया भी। लाल चुट्ट।

काला किट्ट। धोळाधच्च। पीलापट्ट। हराहट्ट और भूराभट्ट सरीखे शब्दों पर हमारे साहित्यकारों ने अपनी कलाकारी से तरन्नुमिया रंग चढाया वरना किसी और भाषा में रंग के आगे चुट्ट-धच्च या पट्ट लगे हों तो बता द्यो। किस भाषा-साहित्य में क्या है और कितना है। अपन को फिलहाल इस बहस में नही पडऩे का। हम तो सिरफ इतना जानते हैं कि मेरी भाषा-मेरा स्वाभिमान।

राजस्थानी भाषा के कारण कई भाषाएं समृद्ध हुई हैं। उनको संवैधानिक मान्यता भी मिल गई। हम पीछे इसलिए रह गए कि सांसदों ने सदन में इसके लिए जोरदार पैरवी नही की। हमने मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में पूरे के पूरे 25 सांसद दिए। दूसरी दफे भी पच्चीस के पौने पच्चीस नही किए मगर कुछ को छोड़कर किसी ने सदन में जोरदार आवाज नही उठाई। सारे के सारे एकजुट हो जाते तो नजारा ही कुछ और होता। इसके बावजूद हम उम्मीदवान हैं कि राजस्थानी भाषा को मान्यता मिलेगी। जरूर मिलेगी। इसमें ‘राफळरोळियाÓ होने का सवाल ही नही उठता।

बात घूम-फिर कर उसी पे आ गई, जहांं से बिस्मिल्लाह हुआ था। यूं कहे कि बात वहीं ले आए जहां से शुरूआत की गई थी, तो भी गलत नहीं। असल में हम भी चाहते थे कि शीर्षक के राजस्थानी शब्दार्थ से हरेकजन को वाकीफ करवा ही देना चाहिए। पुरानी पीढ़ी के लोग तो इससे अच्छी तरह वाकीफ हैं। हथाईबाजों की तरह वो भी इसे बखूबी परिभाषित कर सकते हैं। मगर नई नस्ल इसके अर्थ से अछूती। आखिर उसे भी तो पता चलना चाहिए कि हमारे पुरखों ने गड़बड़झाला को किस प्रकार ‘राफळरोळिया बना दिया। सारा गुड़ गोबर कर डाला पर भी इसी का मुलम्मा। कूंडा कर दिया और कबाड़ा कर दिया पर भी इसका साया।

यदि कोई पूछे कि गड़बड़झाला कहां होता हैं तो हजारों-हजार-अंगुलियां सरकारी तंत्र की ओर उठनी पक्की समझो। हो सकता हैं हजारों अंगुठे भी उठ जाएं। शासन-प्रशासन में गड़बड़ की झालर ना लगी हो, ऐसा संभव नही है। कहीं ना कहीं-कोई ना कोई छेद नजर आ ही जाएगा। कई दफे तो चादर कई जगहों से फटी नजर आती है। भाईसेण पैबंद लगाने के भतेरे प्रयास करते हैं, मगर छेद, भेद खोल ही देते हैं। हैरतनाक बात ये कि वो झाले और झालर शासन-प्रशासन को नजर नहीं आते। लॉकडाउन में दी गई छूट के समय को ही ले ल्यो। सरकार ने पता नहीं क्या समझ के ऐसे समय में छूट दी जो आम आदमी, खासकर व्यापारियों की दुश्वारियां बढा रही है, तभी तो लोग उसे ‘राफळरोळिया करार दे रहे हैं।

सरकार ने कोरोना के बढते तांडव को देखते हुए राज्य में मिनी लॉकडाउन लगा रखा था जिसके तहत दूध, किराणा, फल, आटा चक्की और साक-भाजी वालों को सुबह-शाम निर्धारित अवधि के लिए छूट दी गई। डेढ महिने बाद यह छूट तमाम दुकानदारों को प्रदान कर दी गई मगर समय सुबह 6 से 11 बजे तक। यहीं से सारा गड़बड़झाला शुरू हुआ। भला सुबह 6 बजे गाड़ी ठीक करवाने कौन जाएगा। भला सुबह 7 बजे सेविंग करवाने या बाल कटवाने कौन जाएगा।

भला सुबह 8 बजे कपड़े खरीदने कौन जाएगा। हुकमसिंह का घर चैनपुरा में और दुकान गुलाब सागर पर। दुकान आते-आते 9-10 बजणी तय। एक घंटे में कितनी ग्राहकी होगी-कैसी होगी। आप अंदाजा लगा सकते हैं। वो 6 बजते ही दुकान खोल के बैठ जाएं तो इत्ती जल्दी ग्राहक आणे से रहे। कई दुकानदारों ने मनमाने दाम वसूलने शुरू कर दिए। पांच की वस्तु दस में। सुबह-सुबह कौन झिकाळ करे।

हथाईबाज देख रहे हैं कि छूट के समय को लेकर आम लोगों के साथ-साथ दुकानदार भी परेशान हैं। सब का ‘चेनहरण हो रखा है। उन्हीं के विचारों का जो निचोड़ निकल रहा हैं, हमने उसे शीर्षक बना के लटका दिया।

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