लॉकडाउन में छूट, बोले तो-‘ऊठ हवार लद गधी

कोई माने या ना माने, मगर यह सौ टका सच है कि आज ज्यादातर लोगों की हालत ‘ऊठ हवार लद गधी जैसी हो चली है। कई लोग इस हाल से दो-चार हो रहे हैं तो कई लोग ‘आराम बड़ी चीज है.. मुंह ढक के सोए की तर्ज पर ही चल रहे है। सुहाने सपनों भरी नींद भी छोड़े और फायदा कुछ नही हो तो क्या मतलब। सोवत है तो भी कुछ नहीं मिलत हैं.. जागत है ं तब भी कुछ नहीं मिलत है..।

ऐसे में सोना ही अच्छा। इत्ते दिन भुगते वहां दो-चार-छह-आठ दिन और सही। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे। जहां तक हमारा खयाल है, ऊपर के एक पैरेग्राफ को पढ कर ज्यादातर पाठक जान गए होंगे कि आगे क्या होने वाला है अथवा आगे क्या आने वाला है। और कोई जाने या ना जाने व्यापारी तो समझ ही गए होंगे कि अब कौन सा सीन आने वाला है।

वो लोग भी पहचान गए होंगे जो पिछले दिनों से ‘नींद बेच के ओजके मोल ले रहे हैं।Ó कई लोग बड़े दूरंदेशी होते हैं। वो लिफाफा देख कर मजमून भांप लेते हैं। कई जन अंदाजा लगाने मे हैड मास्टर। बिस्मिल्लाह होते ही बता देते है कि एंड कैसा होगा। ऐसों में हिन्दी फिल्मों के दर्शक सबसे आगे। वे एक सीन देखने के बाद फटाक से अंदाजा लगा लेते हैं कि उसके बाद का सीन कौन सा और कैसा होगा।

फिल्मी लड़ाई की भनक भी उन्हें लग जाती है। गाना कब आने वाला है, वो उसके बारे में बता देते हैं। कई लोग तो फिलिम का पहला पाठ देख कर अंतिम पाठ का नतीजा खोल कर सामने रख देते है। कई लोग तो उनसे भी चार कदम आगे। वो टाईटल पढ-देख कर पोटली खोल देते हैं। वो क्या करते हैं या कौन क्या करता है या कि कर सकता है। इससे अपन को क्या। हम तो इतना जानते हैं कि हथाई का पहला पेरेग्राफ पढते ही कई भाई लोग भांप गए होंगे कि धारा किस ओर जाने वाली है।

आपणी राजस्थानी भाषा में कहावतों-आडियों और ओखाणों का अकूत खजाना है। राजस्थानी भाषा इतनी समृद्ध, समर्थ और गहरी है जिसकी थाह लेना असंभव। अफसोस इस बात का कि अन्य कई भाषाओं को सहारा देने वाली राजस्थानी भाषा संवैधानिक मान्यता मिलने की बाट जोह रही है। हम लंबे समय से इसके लिए संघर्षरत है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि हमारे भाषावीरों का त्याग, बलिदान और संघर्ष बेकार नहीं जाएगा। आज नही तो कल-परसों हमारी भाषा को जुबान मिलेगी-अवश्य मिलेगी।

हमारी भाषा में जो कहावतें कही गई हैं तो भीतर तक उतरती है। हर शब्द खरा और सच्चाई से लबरेज। ऊठ हवार लद गधी के तार गधा-गधी से जुड़े हुए। गधी को कोड करके कहावत घड़ी गई इसका मतलब यह नही कि गधे इससे अलग है। यूं देखें तो कहावत में ‘शी को तवज्जोह दी गई है। गधा पुर्लिंग और गधी स्त्रीलिंग तो कहावत ‘शी प्रधान हुई कि नही? इसके माने यह भी नही कि इसमें केवल गधी की मेहनत का महिमामंडन किया गया है, वरन उसका पूरा कुनबा और जमात शामिल है। कहावत का खुलासा करें तो नजर आएगा-‘सुबह जल्दी उठो और पीठ पर लादना शुरू कर दो।

कहना तो नहीं चाहिए मगर सच्चाई कहने में कैसी शर्म। लोग जो सोच रहे हैं-समझ रहे हैं, उसे सामने लाने में कैसी लाज। कई व्यापारी-दुकानदार इन दिनों अपनी तुलना उस कहावत की किरदार से कर रहे है। लॉकडाउन से छूट देकर सरकार ने उनपे जो एहसान किया है वह उलटा दुकानदारों पर बोझ बनता नजर आ रहा है। शासन-प्रशासन ने सभी व्यापारियों को सवेरे छह से ग्यारह बजे तक दुकानें खोलने की अनुमति दी हुई है। उसके हिसाब से चलें तो व्यापारियों को तड़के चार बजे उठना पड़ेगा।

नित्य कर्म-हिनान हंपाड़ा, चाय-वाय-नाश्ता-वाश्ता करते-करते सवा पांच-साढे पांच बज जाणी है। दुकान खोलकर बैठ गए तो इतनी जल्दी ग्राहक आणे वाले नही। आप बताइए-किसी को कपड़े खरीदने हो तो क्या वो सुबह सात बजे दुकान पे धमक जाएगा। धमक भी गया तो धामाधामी कर पाएगा।

ऐसे कई दुकानदार हैं जो अपने प्रतिष्ठानों से दस- पंद्रह किमी दूर रहते हैं। वो जस-तस दुकान पर आ भी गए तो ग्राहक कहां से लाएंगे। अमूमन ग्राहकों का आगमन दस बजे के बाद ही शुरू होता है तब तक शटर डाउन करने का समय हो जाएगा। इस के माने व्यापारियों का सुबह जल्दी उठ कर लदना बेकार। ग्राहकी होगी तो भी तो टुच्ची सी।

हथाईबाजों ने छूट के समय को लेकर कल भी चर्चा की थी जिसे पाठकों के साथ आम दुकानदारों ने खूब सराहा और सोशल मीडिया पर जम के तंज कसे। एक ने कहा-‘सुबह 6 से 11 बजे का समय इम्तिहान की तरह है। दुकानदार घर पहुंचाता हैं तो घरवाले पूछते हैं-‘कैसा रहा।

यह भी पढ़ें-छूट का समय जंचा नहीं