स्कूली धरमकांटा

हमें सरकार के फैसले पे कोई शंक नहीं। हमें मंत्रालय के कदम पे कोई वहम नहीं। कोई यह नहीं समझे कि हम सफाई या स्पष्टीकरण दे रहे है वरन बता रहे हैं कि हम इस मामले पे सरकार के साथ है। जो फैसला हुआ, धांसू हुआ। जो निर्णय किया, बच्चों के लिए हितकारी है, पण सवाल ये कि उसकी पालना और पुष्टि के लिए कौन से तरीके अपनाए जाएंगे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे है।


पहले बात सफाई और स्पष्टीकरण की । अगर कोई किसी को नोटिस जारी करे तो जवाब में स्पष्टीकरण दिया जाता है। वो पूछे आप ने ऐसा क्यूं किया। ये कहें इसलिए किया अथवा किया ही नहीं, आप का बंदा झूठ बोल रहा है। उनने पूछा आप ने जो किया वो फलां धारा के तहत अपराध माना जाता है, क्यूं ना आपके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाए। उनने जवाब दिया ऐसा करना मेरा अधिकार है, जो इस धारा के तहत कानून ने दिया हुआ है, इसके बावजूद एतराज है तो कोर्ट में मिलते हैं। कुल जमा नोटिसखोरी का यही परिणाम। हमारी सफाई का सब सिरफ ये कि कोई सवाल खड़े ना कर दे कि कौन किसके साथ है।

किसान कहे हथाईपंथी हमारे साथ और सरकार कहे ऐसा हो ही नहीं सकता। हथाईबाजों ने हमेशा सच्चाई का साथ दिया… दे रहे है… और आइंदा भी देंगे। इतना कुछ कहने सुनने के बाद भी किसी को शक है तो आ जाए चाय खाट और हुक्के पर। समझाने के पूरे प्रयास फिर भी कोई ना माने तो लोकतंत्र है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आपकी हठ के कारण रास्ते जमा हो जाएं और लोगों को परेशानी हो जाए। आप मैदान में धरना दो। सभा करो। चौपाल लगाओ। लंगर चलाओ। भाषणबाजी करो। सरकार को चेतावनी दो मगर हाईवेज जाम करना किसी भी सूरत में उचित नहीं। रेले रोकना किसी भी सूरत में मुनासिब नहीं। इसलिए हमारा यही कहना कि बीच का रास्ता निकाल लो भाई… खामखा की अकडाई ठीक नहीं है।


खैर, किसानी-बागवानी चलती आई है…चल रही है…और चलती रहणी है, मगर उस मसले पर हम सरकार के साथ। ये समझ लो कि सटके खड़े है। एकदम चिपोचिप। इस सफाई पर कई लोग सवाल खड़े कर सकते हैं कि यहां देह दूरी का ख्याल नहीं रखा जा रहा है, तो भाई यह नजदिकियां फिलहाल शाब्दिक रूप से है और जब वैक्सीन आ जाएगी तो प्रायोगिक तौर पे। जब सरकार कोरोनाकाल में बंद पड़ी स्कूलों के बावजूद बच्चों के हित में फैसला ले सकती है तो हम वैक्सीन लगवाने के बाद मंत्रालय के साथ कदमताल क्यूं नहीं कर सकते। सवाल जस का तस कि उस कदम की पालना के लिए कौन सा रास्ता अपनाया जाएगा?


ऐसा पहली बार नहीं हो रहा, पहले भी कई दफे हो चुका है। होंठ हिले-जुबां चली और मामला नक्की… ऐसा सरकारी पक्ष के लोग सोचते हैं। वो सोचते होंगे कि आदेश-निरदेश जारी करने भर से राहत का गोदाम छिलमछिल हो जाता होगा, मगर ऐसा नहीं है। ऊपर से जारी आदेश को ठेठ नीचे तक पहुंचाने में खासी मशक्कत करनी पडती है। कई दफे आदेश रास्ते में अटक आते है। गुडमुड़ी हो जाते हैं। फट जाते हैं। रोक लिए जाते है। कभी कभार पहुंच भी जाए तो जमीन पर उतरते नहीं दिखते। कभी कभार दिख जाए तो बिचौलिए बीच में ही लावे लूट लेते है। उस अंतिम व्यक्ति तक योजना का लाभ नहीं पंहुचता, जिस के लिए बनाई गई है। हथाईबाज ने हमेशा अच्छाई और सुटठाई का साथ दिया, तो इसबार अलग कैसे रह सकते, वो भी बच्चों के मामले में। बच्चे तो हमारी जान-मान-ईमान-शान-आन-बान सब कुछ है। मगर सवाल ठंडा होणे का नाम इज नही ले रहा।


बच्चों के कंधे से बस्ते का बोझ कम करने के लिए केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने नीति जारी की है। जिसके अनुसार छोटी क्लास के बच्चों के बस्ते का बोझा 1.6 से 2.2 किग्राम होगा जब कि बडी क्लास के बच्चों का बैग 3.5 से 5 किलो का होगा। छोटी क्लास के बच्चों के लिए तीन और बड़ो के लिए छह किताबे होंगी। कॉपियों और अन्य सामान का वजन साथ में। अन्य सामान के माने लंच बॉक्स-पानी की बोतल आदि-इत्यादि। छोटी क्लास के माने प्राइमरी और बड़ी के माने ट्वेल्थ तक। सुना पढा तो ठीक लगा। हम देखते हैं कि बच्चे बस्ते के बोझ से दबे जा रहे है। जित्ता उनका खुद का वजन नहीं, उससे ज्यादा बस्ते का। अब सवाल ये कि बस्ते का वजन कैसे होगा। क्या स्कूल वाले बस्ते तोलने की अलग से व्यवस्था करेंगे। क्या स्कूल के गेट में धरम कांटा लगाया जाएगा। क्या बेग की रोजाना तुलाई होगी। क्या इसके लिए ताकड़ी लगाई जाएगी? सवाल भतेरे। उत्तर किसी को पास नहीं। हो सकता है स्कूलें खुलने पर मिल जाए।