जीतीं ये-हांके वो

परंपरा उचित तो नही है मगर चल पड़ी तो चल पड़ी। हमारे हिसाब से तो इसे रोकना बेहतर रहेगा वरना कहावतों में एक किरदार और जुड़ जाएगा। जुड़ क्या जाएगा, समझ लो जुड़ गया। सवाल ये कि इस जुड़ाव को हटाए कौन, जब कि ऐसा होना जरूरी है। हो सके तो कुछ नियम-कायदे लागू किए जा सकते हैं पर सूगली सियासत यहां भी। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

अपने यहां टांग से दिव्यांग और दृष्टिहीन को लेकर दो-चारेक कहावते आम है। उनका श्रवण आपने किया होगा। इनने किया होगा। उनने किया होगा। हमने भी किया होगा। हो सकता है उगली भी हो। कहावतें भंडारण के लिए तो होती नही हैं। ना स्टॉक करने के लिए होती है। ऐसा होता तो आढतिए और बिचौलिए व्यापारी कहावतों को कोल्ड स्टोरेज में जमा कर लेते और जरूरत पडऩे पर ऊंचे दामों में बेच देते। मगर ऐसा है नहीं। ऐसा हो भी नही सकता। कहावतें-आडिएं-ओखाणे और मुहावरे लोकोक्तियां सार्वजनिक संपत्ति है। यह हमारी विरासत है। इनका प्रचार-प्रचार करना और इनकी रक्षा करना हम सबकी जिम्मेदारी है।

बड़े सयाने कहते हैं कि ज्ञान बांटने से बढता है। आप कोई चीज-वस्तु बांटने बैठ जाएं तो उसकी मात्रा कम होती रहेगी। घर में एक बोरी शक्कर पडी है और अड़ोसी-पड़ोसी रोज मांगने आ जाएं और आप कटोरी-दो कटोरी पकड़ा दें तो महिने-दो महिने बाद खाली हो जाणी है। अब तो खैर यह प्रथा लगभग खल्लास हो गई है, वरना हमारे बखत में लेन-देन चलता रहता था। तुम मुझे साक दो-मैं तुम्हें छाछ दूंगी। मैं तुम्हें चाय की पत्ती दूं-तुम मुझे जावण दो। कभी चार नंबर वाली छह नंबर वाली से एक कटोरी तेल ले आती तो कभी कल्लो काकी-पंचायती बुआ के यहां से दही। कई बार इस विनिमय प्रथा के लिए बच्चों को आगे कर दिया जाता। सयाने यह भी कहते हैं कि बैठे-बैठे खाते रहने से खजाने भी खल्लास हो जाते हैं मगर ज्ञान बांटने से बढता है। प्यार बांटते चलो.. ज्ञान बांटते चलो..।

फर्ज करो कि हमारे ऋषि-मुनियों और ज्ञानियों-ध्यानियों-विज्ञानियों ने ज्ञान अर्जित करने के बाद उनका भंडारण कर लिया होता तो क्या होगा। वो अपने ज्ञान को ‘भुड़के में बंद कर जमीन में गाढ़ देते तो क्या होता। वो जानते थे कि ऐसा करने से अज्ञानता का अंधेरा गहरा जाणा है, लिहाजा उन्होंने ज्ञान का प्रकाश फैलाया। आप जैसे ज्ञानीजन पांव से दिव्यांग और दृष्टिहीन से जुडी कहावत के बारे में जान गए होंगे। लिखना इसलिए उचित नहीं कि कोई यह ना समझ बैठे कि हम उनका मजाक उड़ा रहे है। अलबत्ता क्लू दे सकते हैं कि पांव से दिव्यांग वाली कहावत के तार ‘बुहारी और दृष्टिहीन वाली कहावत का नाता-‘न्यौते से जुड़ा हुआ।

परंपराएं-प्रथाएं और रिवाजों का चलन-प्रचलन पुराना है। पुरखों के बखत से ऐसा चल रहा है। वो परंपराएं सॉलिड थी-हैं-और रहेगी। इन के बीच में शासन-प्रशासन ने जिन प्रथाओं-परंपराओं का घालमेल किया, हो सकता है वो उनके हिसाब से सही हो मगर ज्यादातर लोगों को सुहा नही रहा। वो इनका विरोध नही कर रहे वरन एतराज जाहिर कर रहे हैं। ऐसा करना उनका अधिकार है। अधिकार तो विरोध पर भी है। चाहते तो कर सकते थे। ऐसा इसलिए नही कर रहे कि उन में सुधार की गुंजाइश है। आप ने नई परंपरा शुरू की। स्वागत है। आप ने नई प्रथा शुरू की। स्वागत है। आपने नई रवायत शुरू की। स्वागत है। इसका मतलब यह नही कि हर किसी को ‘ढो लिया जाए। उन को तो उनको- उनके के इनको और उनको भी ढोवो। इस ‘ढुवाई के तार सीधे तौर पे उन दो कहावतों से जुड़े हुए-जिनका जिक्र पहले किया जा चुका है। एक-पांव से दिव्यांग वाली और दूसरी दृष्टिहीनता से जुड़ी हुई।

सरकार ने महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की है। उन्हें नौकरियों में आरक्षण मिलना चाहिए। उन्हें दाखिले में आरक्षण मिलना चाहिए। उन्हें रेल-बस में आरक्षण मिलना चाहिए। सियासत में एक हद तक तो ठीक है। हद के उस पार लोचा है। उन्हें संसद में आरक्षण दो-उन्हें विधानसभा में आरक्षण दो। किसी को कोई एतराज नहीं। पार्षदी-जिला परिषद और पंच-पंचायती में आरक्षण देने पर हमें तो एतराज है। दे दिया तो कम से कम शैक्षणिक योग्यता का निर्धारण जरूरी है।

एक सरकार ने निर्धारण किया दूसरी ने हटा लिया। नतीजा वही ढाक के तीन पात। आरक्षण के कारण महिलाएं पार्षद बन गई। जिला परिषद सदस्य बन गई। पंच-सरपंच बन गई मगर सत्ता उनके पति-देवर-भाई-सेठ या पिता के हाथों में। सरपंच देवी घूंघट में। दस्तखत करना आवे नहीं। बांचणा आवे नहीं। लिखणा आवे नहीं। बैठकों में जावे तो-बॉडीगार्ड साथे। टूर पे जावे तो अंगरक्षक साथे। दफ्तरों में जावे तो टोगडि़ए साथे। जिला-राज्य मुख्यालय में जावे तो कोई ना कोई साथे। जीती ये और हांके वो। ऐसी व्यवस्था हमें तो नहीं जंच रही। जनप्रतिनिधियों के लिए शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य होनी चाहिए। वरना अनपढिए घुड़ले चढते रहेंगे और पढे-लिखे भीख मांगते रहेंगे।