भळै दिखा नखरेबाजियां!

पक्का तो नही कह सकते, मगर उम्मीद करते हैं कि नौजवान पीढी कम से कम वैसे समय में तो नखरेबाजी दिखाने से बाज आएगी। टीमटाकण से बचेगी। खुद को ओवर स्मार्ट दिखाने से परहेज रखेगी। दूध के जले छाछ को फूंक-फूंक के पीते हैं। हो सकता है वो लोग इस जलन से कुछ सीख लें। लेंगे तो उनके साथ परिवार और समाज का भी भला, वरना हम जैसे लोग फटाक से कह देंगे-‘भळै कर नखरेबाजियां..। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

बड़े-बुजुर्गों ने हमें ऐसे कई मंत्र दिए जिन को जीवन में उतारा जाए तो ना कोई तकलीफ। ना कोई चिंता। नो पंगे-नो लफड़े। मगर लोचा इस बात का कि उन सीख-सलाहों पर ज्यादातर लोग ध्यान नही दे रहे। लोगबाग उनकी सीख को गुवाडी छाप सीख ही समझते हैं। वो नहीं जानते कि दोनों में जमीन-आसमां का फरक है। खुद हथाईबाज कह चुके हैं कि महंगाई के इस दौर में जो चीजें साव सस्ती हैं, उनमें सीख और राय भी शामिल है। जिसे देखो, वो रायसाहब बना नजर आता है। इधर देखो तो सीख हुसैन-उधर देखो तो सीख सिंघ। भले ही उन की बात पर खुद उनके घरवाले गौर ना करें मगर राय देने में तनिक भी मुंजीपणा नहीं। कोई सलाह नहीं मांगे तो भी तैयार।

इसके साथ हम ने यह भी कहा था कि बड़े-सयाने जो सीख देते हैं, उस पर चलने में सब की भलाई है। उनकी सीख होंठ हिलाए और जुबान निकल गई जैसी नहीं। गाल फुलाए और आवाज निकल गई वाली भी नही। एक दम ठावी। सॉलिड। सौ टका टंच। उनकी सलाह में अनुभव की महक। उनकी राय में सच्चाई। उनकी सीख कुंदन सरीखी। कोई चल के तो देखे। यहां भी सवाल कि चले कौन। उन्होंने कहा-हम ने सुना और मामला नक्की। संत-सुजानों के प्रवचन सुनने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। पांडाल खचाखच। ऐसा आज से नही पिछले लंबे समय से हो रहा है।

बाबजी प्रवचन देते हैं-श्रद्धालु भाव विभोर हो के सुनते हैं। मगन हो जाते हैं। बुजुर्गों की सेवा करने की सीख पर ऐसा लगता है मानों वहां बिराजे पुत्र-बींदणी घर जाते ही माता-पिता की सेवा में जुट जाएंगे। पर ऐसा होता नही है। पांडाल से निकलते ही वही मंजर, जो श्रद्धालु लोग पीछे छोड़कर आए थे। कई महिलाएं तो पांडाल में बैठी-बैठी थ्हारी-म्हारी करने से बाज नहीं आती। जो लोग उनके प्रवचन को भीतर तक उतार कर अमल में लाते है। उनका जीवन सुखमय। उनका जीवन शांतिमय। छोटे-मोटे उतार-चढाव तो हरेक की जिंदगी में आते है। धूप-छांव का खेल चलता आया है और चलता रहेगा।

महापुरूषों ने ‘सादा जीवन-उच्च विचार का संदेश दिया था। यह सीख केवल भारतीयों या भारतवंशियों के लिए हो, ऐसा नही है। यह सीख संपूर्ण मानव जाति के लिए है। अपने यहां जितने भी आदर्श पुरूष हुए, उनका जीवन सादगी से परिपूर्ण था। दिखावे से कोसों दूर। विचार उच्च। विचारों में तनिक भी खोट नहीं। जैसा कहा-वैसा बनके दिखाया। पहले खुद उस राह पे चले फिर दूसरों को उसपे चलने का संदेश दिया। जो लोग चले, वो चल रहे हैं और जो नही चले, वो भी चल तो रहे हैं मगर खोड़ाते-खोड़ाते..।

सादाजीवन का मतलब ये भी नहीं कि मैले धोतिए-पोतिए और दो पट्टी की चप्पल पहन के डोलते रहो। सादापन के माने सौभरनेस। नो लटके-नो झटके। किसी प्रकार का दिखावा नहीं। बणो-ठणो तो ऐसा ना लगे कि अधजल गगरी छलक रही है। ढंगढांग के वस्त्र। सलीके से सजे-धजे। कोई देखे तो लगे कि हम राजस्थानी है..। हम भारतीय है। हम भारत वंशीय हैं..। ज्यादा टीमाटामका ठीक नही है।

हां, कोई विशेष अवसर हो तो बात कुछ और है। अपने यहां शादी-ब्याह-सगाई-सरपण आदि-इत्यादि अवसरों पर सजने-संवरने की परंपरा रही है। आप दिल खोल के सजिए। खूब संवरिए मगर एक दायरे में रह कर। फै शन का मतलब ये नहीं कि अधनंगे हो जाओ। भारतीय परिधानों ने जो खुशबू है। वो कही नहीं। राजस्थानी पौशाकों का तो कोई तोड़ ही नहीं। माना कि हमें पहनने की आजादी है। इस आजादी का उपयोग अपनी परंपरा के अनुरूप किया जाए तो बेहतर रहेगा। वरना नंग धड़ंग घूमो नी। कौन कहने वाला-कौन सुनने वाला।

अपने यहां ऐसे मौके भी आते हैं तब सादगी और संजिदगी खूब काम आती है। हांलांकि सादगी का तो किसी से कोई मुकाबला ही नहीं फिर भी कुछ अवसरों पे सादापन खूब काम आता है। हाल ही में आरएएस 2018 के साक्षात्कार में कई लड़के-लड़कियों को जींस-टीशर्ट-स्पोर्टस शूज और अकड़ के बैठने का दिखावा अंकों का नुकसान करवा गया।

उन्हें नखरे दिखाना भारी पड़ गया। अरे भाई, साक्षात्कार में जा रहे हो या फैशन परेड में। जीवन में सादगी उतार लो तो सबसे बढिया। नही तो कम से कम ऐसे अवसरों पर तो सादगी दिखाओ ताकि फलों से लदी डाल की तरह दिखो। अमचूर की तरह अकड़े रहने का कोई फायदा नहीं। जो मजा विनम्रता और सादगी में है वो और कही नहीं। हर जगह नखरे दिखाना उचित नहीं। आपका क्या क्या खयाल है।

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