गण और तंत्र में कदमताल हो

बीते हुए पल और आने वाले लम्हें में भी फरक होता है, यह तो एक साल है। पूरा एक साल। एक साल में तीन सौ पैंसठ दिन होते हैं। इन दिनों को जिन्हें घंटे-मिनट में बांटना है, शौक से बांट सकता है। हमारा सिर्फ यही कहना कि ऐसा लगता है मानों हमने कल ही सत्तरवां मनाया था और अब इकहत्तरवां आ गया। उस में और इसमें कितना फरक है। आप भी देख रहे हैं और हम भी। मालिक से प्रार्थना करो कि फरक-फासले मिटे। अंधेरा छटे। धुंधलका हटे। गण और तंत्र के बीच आई खाई भी पटे। शहर की सभी हथाईयों पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
गण और तंत्र आने-छाने के बाद हमें नही लगता कि पत्ते ज्यादा खोलने की जरूरत है। एकदम साफ चट्ट है कि बात उसी की चल रही है। खालीपीली गण की चलती तो तंत्र को बीच में नहीं लाते और महज तंत्र की चलती तो गण को परे रखते। दोनों का हथलेवा जुड़ते ही गणतंत्र उसके आगे दिवस आते ही हमारा राष्ट्रीय पर्व। हमारी 26 जनवरी। वो समय याद करने का दिन। उन हुतात्माओं को याद करने का दिन जिनके कारण हमें यह उत्सव मनाने का सुअवसर मिला। उन विभूतियों के प्रति कृतज्ञता दर्शाने का दिन जिन के बलिदान के कारण आप और हम खुली फिजां में सांस ले रहे हैं।
हमारा देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ था। हम ने पहले भी कहा था। कई बार कहा था। बार-बार कहा था। आज फिर दोहरा रहे हैं। आइंदा भी कहते रहेंगे-दोहराते रहेंगे कि आजादी हमें यूं ही नहीं मिली। इसके लिए हमारे पुरखों को बहुत बड़ा त्याग करना पड़ा। हमें पहले मुगलों ने खसोटा-बाद में फिरंगियों ने नोंचा। एक लंबे संघर्ष के पश्चात हमें आजादी मिली। उसके बाद 26 जनवरी 1950 को हमारा अपना संविधान लागू हुआ। संविधान ने हमें कई अधिकार दे रखे हैं-अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों की भी भरमार। हमने पहले भी कहा-आज फिर ताल ठोक कर कह रहे हैं कि हमने आजादी का मोल नही समझा, अब भी हम आजादी को सस्ता जान रहे हैं जबकि आजादी की नींव में हमारे पूर्वजों की तपस्या-त्याग और बलिदान का ईंट-गारा डला हुआ है। हमने उस नींव पर एक मजबूत तामीर खडी करनी थी, अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हम इसमें असफल रहे। हम अपने अधिकारों को लेकर तो सजग और सतर्क रहते हैं मगर कर्तव्यों की बात आने पर अगलें-बगलें-तगलें-खबलें सब झांकने लगते हैं। यदि हम कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक रहते तो गण और तंत्र का जोड़ा एक साथ बैठा नजर आता। सच तो यह है कि आज गण वाम तो तंत्र दक्ष में नजर आते हैं। गण पर तंत्र भारी पड़ता दिखाई देता है। कभी-कभार ऐसा लगता है मानों अंगरेजों का काला संस्करण हम पर राज कर रहा है। कल तक वो हमें डसते थे-आज हमारे अपने डस रहे हैं। उनमें और इन में फरक हैं तो इतना कि वो सरे आम लट्ठ-कोड़े मारते थे और ये अंदर ही ऐसे चूंटिए चमेट रहे है कि गण के सामने तिलमिला कर रह जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं।
देश की आजादी के 74 और संविधान लागू होने के 71 वर्ष बाद भी हम वो मुकाम हासिल नही कर पाए जिसके हम हकदार है। देश में आज भी ऐसी समस्याएं हैं जो हमें अंदर ही अंदर खाए जा रही है। हमने हर क्षेत्र में झंडे भी गाडे। थल में तिरंगा-जल में तिरंगा-नभ में तिरंगा। इसके बावजूद काफी कुछ अधूरा और सूना सा लगता है। जिन समस्याओं को रोना हम बरसों से सुन रहे थे उन्हीं का पीटना आज भी सुन रहे हैं। हम गरीबी का रोना तब भी सुन रहे थे-आज भी सिसकियां सुनाई दे रही है। हम अशिक्षा का रोना कल भी सुनते थे-आज भी सुन रहे है।
महिलाओं पर अत्याचार। अपराधों का बढता ग्राफ। मूलभूत सुविधाओं में छेद। समाजों और कौम-कुनबों के बीच बढती खाई। बेरोजगारी और बढती महंगाई ने जीना दुश्वार कर दिया है। पेटरोल और डीजल के दाम में आग लगी हुई है मगर कोई बोलने वाला नहीं। कोई बोले तो कोई सुनने वाला नहीं।
हथाईबाज देख रहे हैं कि गण गौण और तंत्र भारी पड़ता जा रहा है। कहीं अफसरशाही हावी तो कहीं नेताशाही और लालफीता शाही। भ्रष्टाचार चरम पे। बड्डे-बड्डे अफसर घूसपंथी में लिप्त। सरकारी दफ्तरों में बिना कुछ लिए-दिए पत्ता भी नहीं खनकता। जिसे मौका मिला-लूट खसोट में जुट गया। इसके लिए शासन-प्रशासन के साथ हम-आप भी कम दोषी नहीं। दिन-ब-दिन सूगली होती जा रही सियासत ने तो कुंडा करके रख दिया। कुल जमा नए भारत के लिए हमें अपने स्वार्थ का चोला उतार कर फैंकना होगा। गण और तंत्र हाथ में हाथ डालकर और कदम से कदम मिला कर साथ चलेंगे तभी सही मायनों में गणतंत्र आएगा। एक साल पहले के गणतंत्र दिवस समारोह और इस बार के समारोह में दिन-रात का अंतर है। यह सब कोरोना के कहर के कारण हुआ। नीली छतरी वाले से प्रार्थना करो कि कोरोनाकाल का अंत हो-सुनहरे दिन वापस आएं। दिल्ली के आस-पास किसानों की आड़ में हो रहा हल्ला-गुल्ला थमें। इसी कामना के साथ आप सब को गणतंत्र दिवस की धाई-शुभकामनाएं। जय हिन्द-जय भारत।