बंद करो रोजिना की चूंटियागिरी

हम ने पहले भी कहा था। कई बार कहा था। बार-बार कहा था। आज फिर दोहरा रहे हैं। दोहराने में हर्ज ही क्या। जब खबरिया चैनल्स सुबह से रात तक। दो चार दिन तक। हफ्ता भर तक एक ही रिकॉर्ड को घिसते रहते हैं, हम तो बस याद दिला रहे हैं। हमारे कहे को व्यापक समर्थन मिला।

उससे लगा कि मिला सुर मेरा-तुम्हारा, तो बन गया हमारा। इसके माने ये कि रोज-रोज के चूंटियों से तो अच्छा है कि एक बार करकुरा के नक्की करो। इस शपथ-पत्र के साथ कि आने वाले पांच साल में ऊपर नहीं बढना है। स्थिर रहें तो ठीक-नीचे उतरो तो बलिहारी आप की। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

ऊपर के पेरेग्राफ में कुछ ऐसी बातें हैं जिन का खुलासा करना जरूरी है। कई जन एक चावल देख कर पहचान गए होंगे कि खिचड़ी पकी या नहीं। कई लोग अचकचाहट में कि कौन, क्या कहना चाहता है-हमें कुछ पता नहीं। कई लोग गैस कर रहे होंगे कि अगला सीन कैसा होगा। इसमें कहाई से लेकर बलिहारी तक शुमार। बलिहारी गुरू आप की गोविंद दीयो बताय। बलिहारी की चर्चा होते ही सबसे पहले गुरूजी याद आते हैं। वैसे इसकी कायनात लंबी-चौड़ी है। बलिहारी बोले तो-कृपा। बलिहारी नीली छतरी वाले की। बलिहारी माता-पिता की। बलिहारी भाई-बांधवों की। बलिहारी सच्चे संगी-साथियों की। बलिहारी सहयोगियों की।

बलिहारी अच्छे शासन-प्रशासन की। कुल जमा जिन की वजह से कोई काम पार लग जाए, उसकी बलिहारी। हथाईबाजों ने उसका उपयोग किया है तो सोच-समझ के ही किया होगा।
बात करें कहने की तो भाई आए दिन ऐसा होता रहता है। कोई कहता है-कोई सुनता है। कोई सुनता है-कोई कहता है। कहे-सुने बिना काम ही नही चलता।

मूक-बघिर बोल-सुन नही सकते तो उन्हें इशारों से समझाना पड़ता है प्रत्युत्तर में वो भी इशारों-इशारों में सब कुछ बयान कर देते हैं। कई लोग कह के भूल जाते हैं-कई लोग इस कान से सुनते हैं-उससे निकाल देते हैं। कई लोग कहाई को -‘गांठ में बांधे रखते हैं। वक्त आने पर ‘गांठ ऐसी खुलती है कि कुछ इधर गिरा-कुछ उधर गिरा। कई दफे तो संभालना-सहेजना मुश्किल हो जाता है। कई लोग खुल्ले-खाले में कहते हैं। सब के सामने कहते हैं। कई लोग होले-होले परोसते हैं। मीठे-मीठे चूंटिए भरते हैं। ऐसे चूंटिए कि दाफड़-दाफड़ हो जाते हैं।

कई बार चूंटियों को लेकर जिज्ञासाएं घेर लेती है। इस शब्द की उत्पति किस भाषा से हुई। पहला चूूंटिया किस ने किस को और किस प्रसंग पे भरा। ऐसा कोई बंदा नहीं जिस ने कभी चूंटिए का स्वाद ना चखा हो और चखाया ना हो। और कुछ नहीं तो कुचमादी में ही चूंटिए भर लिए जाते हैं। सजा के तौर पे भी इन की भराई होती है। अब तो खैर स्कूलों में विद्यार्थियों की ‘फोडं़तरी बंद हो गई वरना हमारे जमाने में माट्साब ऐसे चूंटिए चमेटते कि आंखों में पानी आ जाता। उसी सजा का परिणाम है कि चार मिनखों में बैठने के काबिल बन गए। आज माट्साब बच्चे को डांट भी दे तो घरवाले लडऩे को आ जाते हैं। चंूटिए भरने या तड़ी मारने की बात तो बहुत दूर की।

हथाईबाज देख रहे हैं कि आज हर भारतीय सरकारी चूंटियाखोरी से परेशान -हैरान है। आए दिन मींएं-मींए-चूंटिए भरीज रहे हैं। कहने को तो चूंटिएं भरने की जगह निर्धारित है। चूंटिएं भरने की आचार संहिता है-मगर उसकी पालना नहीं हो रही। हम-आप का। इन का-उन का। अपन सब का पूरा शरीर सूज गया। जगह-जगह दाफड़ हो गए। सेवट कहना पड़ रहा है कि भाई एक बार करकुरा के नक्की करो फिर पांच-दस साल नाम ही मत लेणा। आगे बढने की जरूरत ही नही। नीचे उतरो तो बलिहारी आप की।

अपन के यहां सदा ऊपर चढने की कामना की जाती है। उन्नति-प्रगति करते रहने का आशीर्वाद दिया जाता रहा है। मगर यहां हथाईबाज निरंतर नीचे उतरने की कामना कर रहे हैं। कहते है-बहुत हो गया भाई, अब या तो ‘सौ करकुरा के नक्की करो या फिर नीचे उतरो। उनका इशारा पेटरोल-डीजल के दिन-ब-दिन बढ रहे दाम की ओर। जब से कंपनियों को कीमत तय करने की छूट दी तभी से रोजिना दाम बढ रहे है। कभी चारानेका चूंटिया तो कभी आठाने-बाराने का।

मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में दोनों के दाम ढाई गुणा बढ गए। रसोई गैस के सिलेंडर भी रोजाना विस्फोट कर रहे है। हथाईबाजों का कहना है कि रोजिना की चूंटियागिरी से तो अच्छा है कि दाम सौ रूपए प्रति लीटर कर दो उसके बाद दस-बारह-पंद्रह साल छेडऩे की जरूरत नहीं। नीचे उतरो तो बलिहारी वरना ऊपर की ओर देखो ‘इ मती। रोज-रोज के चूंटियों से हम लोग अजिज आ चुके हैं। इससे तो ‘सौ का ठोला ठीक रहेगा।