बंद करो ये सियासी सुगलवाड़ा

पहले लगता था कि हम ने कभी ना सुधरने की सौगंध उठा रखी है। मैं शपथपूर्वक घोषणा करता हूं कि जिंदगी में कभी नही सुधरूंगा। अब लगता है कि और किसी मसले-मुद्दे पर शपथ कसम खरी उतरे या ना उतरे, राजनीति को और छिछालेदार करने पर तो सौ टका खरी उतर रही है। ऐसा ही चलता रहा तो खरापन सौ टका की सरहद पार कर दो सौ-पांच सौ-हजार तक पहुंच सकता है। यही खरापन अगर सकारात्मक हो, तो कितना अच्छा रहे। देश के लिए अच्छा और देशवासियों के लिए भी। हम-आप भले ही ऐसी पॉजिटिविटी दिखा दें सियासत अली ऐसी सूगली सियासत से बाज आ जाएं। इंतजार उस दिन का है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


हमारी सलाह है कि राजनीतिक दलों को भी स्वच्छता अभियान चलाना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं कि आज फलां पार्टी के कार्यकर्ता झाडू-तसले लेकर सड़कों पे उतर जाएं और कल ढीमका पार्टी के। सियासी स्वच्छता अभियान का मतलब ये कि पार्टियों को अपनी आंतरिक सफाई पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। कोई नेता फटे कपड़ों में डोले, हमें कोई एतराज नही। कोई नेता इंकातरे नहाए।

नहाए या ना नहाए। कोई सूंघणे वाला नहीं। किसी दल का कोई नेता ‘दातण करे या नही करे, कोई उनके मुंह में मुंह डाल कर देखने वाला नहीं, लेकिन जुबान से सुगलवाड़ा उगले तो कोफ्त होती है। यार, तुम कैसे नेता हो। नेता हो या नही भी हो। नेता हो या घनचक्कर हो। तुम से तो काळू साइकिल वाला अच्छा जो पंक्चर निकालते वक्त भी राष्ट्रभक्ति के गीत गाता रहता है। तुम से तो भोमा अच्छा, जो ठेला चलाते समय भी देश के जैकारे लगाता है और तुम हर मामले में गंदी-मैली राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे।


हथाईबाजों ने दिसंबर के आखिरी दिनों में ‘हर मामले को सियासतबानों की जुल्फों में उलझाना ठीक नहींÓ शीर्षक से छपी हथाई में सियासतअलियों को जमकर लानत भेजी थी। हम जानते हैं.. हम मानते भी हैं कि राजनीति करना तुम्हारा काम है। तुम्हारा धंधा है। तुम्हारा पेशा है। तुम्हारी नौकरी है। पेट पालने के वास्ते हर मानखा, किसी ना किसी काम धंधे का सहारा लेता है। कोई अगर यह समझे कि मिस्टर इंडिया आ कर उनका और उनके परिवार वालों का पेट भर देगा, तो यह उस की गलतफहमी है। कही से ‘कांसा या ‘थाली आ भी गई तो एक-दो दिन। उसके आगे काळी भींत। भाई-बांधव भी दो-चार दिन मदद कर देंगे। आखिर में हमारी खाज तो हमें ही खिणनी पड़ेगी।


बड़े-सयानों ने पेट की तुलना चक्की से की है। चक्की बोले तो-गेंहूं, बाजरा-मक्की और दालें पीसने वाली। एक वो चक्की जो मिठाई-मिष्ठान की रानी कही जाती है। पर सयाने उसकी नहीं गेंहू पीसने वाली चक्की और पेट की स्थिति को एक ‘तांकड़ी में तोलते हैं। चक्की की कहानी क्या कहती है-‘ऊरते रहो.. ऊरते रहो.. उसका पेट कभी भरने वाला नहीं। एक चक्की वाले ने अब तक हजारों-हजार पीपे गेंहू पीस दिए होंगे।

सैंकड़ों बोरी गेंहू चक्की में ‘ऊर दिया होगा। उसका पेट नहीं भरा। ऊपर से ‘ऊरा नीचे से पीस के निकाल दिया। यही हालत पेट की। सुबह भरा-शाम को फिर खाली। शाम को रोटी-बाटी-ऊरी-सुबह फिर खाली। पेट को भरने के लिए काम धंधा जरूरी। धंधा होगा तो पीसे आएंगे-पीसे होंगे तो चूल्हा जलेगा। चूल्हा जलेगा तो रोटी पकेगी। रोटी खाएंगे तो शरीर चलेगा। शरीर चलेगा तो काम-धंधा होगा। कुल जमा चक्की चलती रहती है। हरेक के अपने काम-हरेक के अपने धंधे। ठीक उसी प्रकार नेतों का काम सियासत करना।


हथाईबाज यह नही कहते कि तुम राजनीति मती करो। करो..डंके की चोट करो.. मगर उच्च स्तरीय हो। शालीन हो। धाकड़ हो। तुच्छ और घटिया ना हो। हलके स्तर की ना हो, मगर आज के राजनेता जिस प्रकार की राजनीति कर रहे हैं, वह घटिया से घटिया और सूगली से सूगली। कई बार तो इतनी सूगली कि सुगलवाड़ा शरमा जाए। सिर्फ विरोध के लिए विरोध की पराकाष्ठा लांघ देना उचित नही है। उनके विरोध पे हमें शरम आ जाती है मगर उनकी ढिटाई कम होने का नाम नहीं ले रही। इन दिनों भी वही हो रहा है।

देश के कुछ विपक्षी दल वैक्सीन पर अंगुली उठा रहे हैं। हम ने लॉकडाउन किस तरह भुगता हम कोरोना काल किस प्रकार भुगत रहे हैं, हमारा जी जाणता है। हमारे वैज्ञानिकों ने दिन-रात एक कर के पूरी लगन और मेहनत के साथ कोरोना किलर वैक्सीन तैयार की उसके लिए वो बधाई के पात्र है। उन्हें शुभकामनाएं। उन्हें धिनवाद। भगवान उनकी हजारी करे।

पूरे देश की शुभकामनाएं-बधाई उनके साथ मगर विपक्षी दलों के कुछ गवैये इस पर भी राग भौंडा बिखेर रहे हैं। किसी को इसमें भाजपा नजर आती है-किसी को नपुसंकता। अरे नामुरादो, तुम्हें टीका ना लगवाना है तो मती लगवाना-कम से कम हमारे वीर शूरवीर विज्ञानियों का हौंसला तो पस्त मती करो। तुम भले ही वैक्सीन मती लगवाना, हमारे मन में तो वहम पैदा मती करो। ऐसी सूगली सियासत ठीक नहीं। इतना जुबानी सुगलवाड़ा अच्छा नही है।