पद ले ल्यो.. पद…

शर्मसार इसलिए कहा जाएगा कि वहां लोकतंत्र की चौड़े धाड़े हत्या हुई, वह भी कई लोगों की मौजूदगी में और चासों में (बे) शर्मसारी इसलिए कह सकते हैं कि अंदर की बाते बाहर आ गई। वहां जुआं था। यहां खुला खेल खिलाड़ी का। जब खिलाड़ी बिक सकते हैं तो नेता क्यूं नही। हम मजाकिया अथवा तंज के तौर पर भले ही कुछ भी लिख-बांच लें, मगर शुरूआत ठीक नही है। इसे रोकना होगा वरना दूसरे लोग भी हौडाहौड़ गोडे फोडऩे लग गए तो सारी व्यवस्था तहस-नहस हो जाने की आशंका बलवती हो जाएगी। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

ऊपर का एक पेरेग्राफ पढने के बाद कोई गंभीरता से सोचने बैठे तो कई बातें निकलकर सामने आ सकती हैं। इसमें शर्मसारी। इसमें (बे) शर्मसारी। अंदर की बातों का बाहर आना। जुआं और खुला खेल खिलाड़ी का। खिलाडिय़ों की बिकरी अथवा नीलामी और अब पद ले ल्यो.. पद.. की सुर लहरियां सुनणी बाकी रह गई। समझवान लोग हर गंभीर बात-काल-स्थिति और परिस्थिति को बड़ी धीरता और गंभीरता से देखते हैं।

उन पर चिंतन-मन करते हैं। मंथन करते हैं। वो जानते हैं कि व्यवस्था में कहां छेद। कहां खड्ड़े हैं। कहां पैबंद लगे है। व्यवस्था रूपी जाजम कहां से फटी हुई हैं। कहां से उधड़ी हुई है। व्यवस्था रूपी चादर में कहां तुरपाई की हुई है। कहां टांके लगे हैं। कई बार आवाज भी उठाई पण वो आवाजें नक्कारखाने की तूती की मानिंद साबित हुई। अब तो आम आदमी भी जान गया कि कहां क्या हो रहा है। हम भले ही उस पर लोकतंत्र को लजाने का मुलम्मा चढाएं। सही बात तो यह है कि अब तक जो गुप-चुप हुआ करता था वो सरेआम शुरू हो गया।

पेरेग्राफ की अन्य पंक्तियां और शब्द भी आप की हमारी नजरों के आजू-बाजू घूमते नजर आते हैं। हौड़ाहौड़ गोड़ा फोडऩा उनमें से एक। हमें नहीं लगता कि इस पे ज्याद पत्रवाचन करने की जरूरत है। आपणी मातृ भाषा राजस्थानी में घड़ी गई इस कहावत को हिंदी में परोसें तो नजर आएगा कि चारों ओर नकल करने की हौड़ मची हुई है। इसने ऐसा किया तो हम भी करेंगे। उस ने ऐसा किया तो ये पीछे क्यूं।

र नंबर वाली के यहां फलां चीज आई तो अपने यहां भी आएगी। ढीमके ने ऐसी डे्रस ली या मोबाइल लिया तो अपन को भी लेना है। अच्छे कार्यों में भले ही कोई किसी से ‘ईशका या ना करें, आलतू-फालतू कामों में सबसे आगे। ऐसा करना लोगों की लत बनता जा रहा है। ऐसा नहीं कि समाज में सारे लोग बुरे हैं। आप जैसे ठीमर लोग भी है। सेवादार हैं। सेवाभावी हैं। कर्तव्यनिष्ठ हैं। फर्जवान है।

जीव प्रेमी है। राष्ट्रवादी है। सत्यनिष्ठ हैं। उनसे पे्ररणा बहुत कम लोग लेते हैं जब कि गलत कदम पर चलने वाले लोगों की संख्या ज्यादा नजर आती है। गांधी मार्ग पर चलना और गांधी के मार्ग पर चलने में रात-दिन का अंतर है। शासन-प्रशासन को पता हैं कि लोगबाग महात्मा गांधी के बताए मार्ग पे चल नही सकते है लिहाजा मार्ग बना दिए। ऐसे मार्ग हर नगर-महानगर में मिल जाएंगे। तसल्ली इस बात की कि लोग महात्मा गांधी मार्ग पर ही सही, चल तो रहे हैं।

बात करें बिकरी-नीलामी की, तो यह कोई नया फंडा नही है। एक जमाने में वस्तुविनिमय हुआ करता था। दूधिया दूध देकर तेल लेता-तेली तेल देकर धान। इस हाथ दे-उस हाथ ले। लेन-देन सुबह शाम या दो-चार दिन बाद में होता तो भी चल जाता। मुद्रा का प्रचलन होने के बाद ‘एक्सचेंज मांदा पड़ गया। आज-‘पईसा फैंको-तमाशा देखो। काके-बड्डे के टेम में जमीर तो नही बिकता था। ईमान तो नही बिकता था। आज चंद रूपयों के लालच में लोगबाग इन का सौदा करने से बाज नहीं आ रहे। बाप-बड़ा ना भैया.. सबसे बड़ा रूपैया..।

बात करें अंदर-बाहर की तो इसमें भी हैरत नहीं। नीलामी हुई तो हुई। पहले अंदरखाने होती थी.. अब भरे बाजार हो गई। अंदर जुआं था-बाहर पक्का सौदा है। माना कि शरमनाक है-है तो है, रोको। इसे रोको। रूकना तो तय है मगर शुरूआत होने के पीछे जो संदेश छुपा है, उसपे गंभीरता से गौर करने की जरूरत है। हमने नेतों पे टिकट बेचने के आरोप लगते सुने। खरे भी खोटे भी। नीलामी होना भी नया नहीं। आईपीएल में खिलाड़ी बिकते हैं, पर वहां पद बिक गए।

महाराष्ट्र के मासिक और नंदूरबार जिले के उमरने और खोडामाली में सरपंच पद के लिए कांदामंडी में बोली लगाई गई। बोली ऐसे लगी मानों कोई वस्तु बिक रही हो। उमरेन सरपंच पद की बोली एक करोड़ एक लाख से शुरू हुई दो करोड़ पे छूटी जबकि खोडामाली सरपंच का पद 42 लाख में बिका। हांलांकि चुनाव आयोग ने दोनों चुनाव रद्द कर दिए मगर नीलामी ने अंदर की बात बाहर तो निकाल दी। नेतों को पेसे दे के टिकट लो। हार जीत की कोई गारंटी नहीं और वहां पैसे फैंके और पद पक्का।

हथाईबाजों की माने तो यह सच्चाई हमारी व्यवस्था पर तमाचा है। यदि टिकट बिकते-रहे.. बोली लगती रही तो एक दिन गली-गुवाड़ी में पद ले ल्यो.. पद.. की लहरियां ना गूंज जाएं..।