हमारे छाले-किस को बताएं

अभी तो पिछली वाली स्याही भी नहीं सूखी कि आंसू फिर भर आए। आ तो लंबे समय से रहे थे मगर उन पर गौर किसी ने नही किया। कैसी विडम्बना है कि हमारे छाले देखने वाला कोई नहीं। हमने उनके आंसू तो देख लिए। जब-जब निकले तब-तब हम भी भावुक हुए। पर हमारे आंसू कौन देखे। हमारे आंसू कौन पौछें। हम तो खून के आंसू निकाल रहे है। समझ लो कि उसी में कलम डूबो कर हर्फ कागज पे उतार रहे हैं। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

एक जमाने में हमारे वरिष्ठ ‘हथाई की तरह एक स्थायी ‘कॉलम लिखा करते थे। शीर्षक था-‘लिखी सो सही। ‘लोग बड़े चाव से पढते। धिनवाद करते। प्रशंसा होती। लेटर टू एडीटर भेजते-मगर शीर्षक में छुपी सच्चाई से बहुत कम लोग वाकीफ थे। लोग पढते और शानदार-जानदार कह के अपने-अपने काम-धंधे में लग जाते। अगले दिन नया विषय। नया प्लॉट। उस प्लॉट पर नया कंट्रक्शन। उस प्लॉट पर नई इबारत। उसके दो मायने। ऐसा सिर्फ ‘लिखी जो सहीÓ के साथ नहीं हुआ। लगभग हरेक के दो अर्थ निकलते हैं। कई लोग उसे द्वि-अर्थी संवाद कहते हैं। अंदर घुसे तो घुसते चले जाएंगे लिहाजा फोरी और ऊपरी तौर पे बात करना ठीक रहेगा।

जब बात ‘लिखी जो सही की चली, है तो डगमग क्यूं होणा। सही बोले तो राईट। राईट बोले तो सही। सही बोले तो सच और सच बोले सही। अर्थात लिखा जो सच। वही लिखा जो सच था। वही लिखा जो सच है। लिखी सो खरी। अपनी राजस्थानी भाषा में स्याही को ‘सही कहते हैं। अब तो खैर स्याही वाले पेन-होल्डर का दबदबा खल्लास हो गया है, वरना एक जमाने में उनका एकाधिकार हुआ करता था। छुटपने में होल्डर से लिखाई उस के बाद पेन से। स्याही की सूखी पुडिय़ों का दौर हमने देख रखा है। स्याही की गोलियां हम वापर चुके है। स्याही की शीशी हम इस्तेमाल कर चुके है। किताबों की दुकान पर जाते और कहते-‘भाई जी, सही की शीशी दो। यहां सही का नाता स्याही से जुड़ा हुआ याने कि सही के भी दो मायने। एक-सही और दूसरा-स्याही। सही और सच्चाई पे किसी को शक-शुबा नही और सही के माने कागद कारे करना। लिखा जो इंक। लिखी जो स्याही। हम कागद कारे करके राजी हुए। बांचणे वालों ने बांच लिया और मामला नक्की।

हो सकता है यहां भी वैसा हो रहा हो। सही है तो है और स्याही है तो है, पर है एकदम टंच। एक दम खरी। पिछली हथाई मे अपन ने पीएम सर के आंसुओं का जिक्र किया था। ‘आंसुओं को तो बख्शो शीर्षक से छपी हथाई में हमने उन लोगों पे लानत डाली थी जो प्रधानमंत्री के रूंधे गले और भीगी आंखों को नाटक-नौटंकी कहने से बाज नही आए। मोदीजी जब-जब भावुक हुए-विपक्ष को छोड़कर आखा देश भी भावुक हुआ मगर अफसोसनाक बात ये कि पिछले लंबे समय से हम-आप खून के आंसू रो रहे हैं मगर उन पर कोई गौर करने वाला नहीं। हम इतने छिल गए कि छाले रिसने लग गए मगर कोई ध्यान नही दे रहा। पक्ष वाले अपने में-विपक्ष फालतू के फट्टे में तो टांग अड़ाने से बाज नही आता, मगर आम जनता से जुड़े मुद्दों पर मुंह पे अंगुली-बगल में हाथ की मुद्रा में खड़ा दिख जाएगा।

हमारे छाले भतेरे। हमारे आंसू भतेरे। हमारे जख्म भतेरे। हमारी समस्याएं अगणित। एक-एक को गिनाणा नही चाहते मगर बढती महंगाई से मिल रहे-आंसुओं का सैलाब दिखाना जरूरी। डीजल-पेटरोल के दाम रोजाना बढ रहे हैं। चाराने-आठाने बढाते-बढाते पेटरोल सौ रूपए के ऐडे-नेड़े पहुंच गया। मनमोहनजी की विदाई के समय दाम चालीस रूपए के करीब थे। उस पर भी भाजपाई रोज बवाल करते थे। कभी गधागाडी तो कभी घोड़ा गाडी में नौटंकी। आज वही भाजपाई ‘मौन सिंघ बने नजर आ रहे है। रसोई गैस सिलेंडर सवा सात सौ के पार। सब्सिडी का पतियारा नहीं। जो भाजपाई तीन सौ के दाम पर सड़क पे चूल्हे सजा लिया करते थे, आज वही भाजपाई ‘मुखपति बांधे नजर आ रहे हैं। इन तीनों के कारण आम जरूरत का सारा सामान महंगा। मनमौन सिंहजी के जमाने में जो चीज चार रूपए में मिलती थी, आज उसके दाम बीस रूपए हो गए मगर कोई बोलने-सुनने वाला नही।
हथाईबाज मजबूर। जनता बेबस। आमजन टेसुए बहा रहा है। हम पीएम सर के आंसुओं में भिगे-कोई हमारे आंसू भी तो देखे। मोदीजी ने अपने आंसू देश को दिखा दिए-देश के आंसू भी तो कोई देखे?