ढब्बू के निशान को…

शीर्षक को अधूरा इसलिए छोड़ा ताकि खाली स्थान को हमारे आदरजोग पाठक भर सकें। जहां तक अपना खयाल है, सारे पाठक इस रिक्त स्थान पर जो भी लिखेंगे वह एकदम सही होगा। सटीक होगा। सॉलिड होगा। हो सकता है खाली स्थान की पूर्ति करने वालों ने हरफों- शब्दों की लहरियां भी बिखेरी होंगी। जरूरी नही कि वहां भी फु ग्गे-गुब्बारे या ढब्बू का ही उपयोग किया गया हो। इनकी जगह बोतल, बल्ला, कैमरा और केतली भी हो सकती है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


आगे कोई भी हों.. कुछ भी हो.. पीछे वही आएगा जो आपके मन में फुदक रहा है। पीछे वही आएगा जो आप की जुबान से निकलने को मचल रहा है, हो सकता है बाहर आ भी गया होगा। ये बात तय है कि पीछे वाली लहरियां जुड़ते ही नारा मुकम्मिल हो जाएगा। इस का मतलब यह हुआ कि शीर्षक के तार किसी नारे से जुड़े हुए हैं। सुजान-समझवान लोग आधा-अधूरा पढते ही समझ गए कि नारा परोसा गया है। सुजान तो सुजान बेजान-रमजान-भईजान और फरजान भी समझ गए कि यह नारा ही है-जिसे शीर्षक बना के लटका दिया गया है-जिसमें रिक्त स्थान के रूप में सवाल है।

सवाल भी इतना सरल जिसे हर कोई सॉल्व कर सकता है। कई ने तो हथाई पूरी होने से पहले ही कर डाला। समझ भी गए कि धारा किस तरफ मुडऩे वाली है। लोग भले ही अब तक यह नही जान पाए कि वो हारे क्यूं और वो जीते क्यूं। दो साल पहले पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे, जिसमें से तीन राज्य कांग्रेस ने भाजपा के जबड़े से निकाल लिए। यह बात दीगर है कि एमपी फिर भाजपा की झोली में चला गया मगर भाजपा आज तक यह पता नही कर पाई कि पारटी क्यूं हारी और कांगरेस वाले आज तक यह नही पहचान पाए तो वो जीते कैसे। मगर समझने वाले शीर्षक की धारा पढते ही जान गए कि बहाव किस ओर जा रहा है।


कहने को तो कोई कुछ भी लिख सकता है। कहने को तो कोई भी कुछ भी कह सकता है। हमारा कहना ये कि कोई भी कार्य मर्यादा में रह कर किया जाए तो ठीक रहेगा। खुद के लिए भी और समाज के लिए भी। संविधान ने हमें अभिव्यक्ति का अधिकार दे रखा है। इसका मतलब यह नही कि हम ‘नागाई पर उतर जाएं। हथाई पर बहस होती है। जमकर होती है। जोरदार होती है। विरोध होता है। पक्ष-विपक्ष में तर्क होते हैं। कई बार हूटिंग भी हो जाती है। थोड़ी देर बाद एक पक्ष का चूना और दूसरे का जरदा। हो गई जैरामजी की।


हथाईबाज इससे पहले भी नारों पर चर्चा कर चुके हैं। कई बार कर चुके हैं, क्यूं कि इन दिनों नारों का मौसम है। ऐसे में चर्चा नही हुई तो पहले की गई चर्चा का कोई मतलब नही। अभी मुद्दा फिर से ना गरमाया तो पहले गरमाए मुद्दे ठंडे पड़ गए समझो। यूं देखें तो नारों का मौसम बारोमास चलता है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, जिसमें नारों का राज ना हो। चाहे एक चावल ले ल्यो या पूरी देग, नारों की नमकीन और लजीज खिचड़ी का जबरदस्त स्वाद आएगा। दीगर क्षेत्र के नारों को फिलहाल छोड़ दें मगर सियासी नारों को इसलिए नही छोड़ सकते कि राज्य के तीन बड़े-मोटे शहरों जयपुर-जोधपुर और कोटा में इन्ही का मौसम चल रहा है। इन दिनों गुलाबी सरदी का दौर शुरू हो गया मगर चुनावी गरमी भी जोरदार। इन तीनों शहरों में नगर निगम के चुनाव हो रहे हैं। शहर तीन और छह निगम। शुकर है कि चुनाव अक्टूबर मे हो रहे हैं। दिसंबर-जनवरी की भरी सरदी में होते तो भी वोटों की गरमी स्वेटर-कोट-शॉल पर भारी पड़ती। चुनाव हो और नारे ना लगें, ऐसा हो ही नही सकता।


हथाईबाज इन दिनों भांत-भांत के नारे सुन रहे हैं। चुनावी तस्वीर साफ होने के बाद तो नारा नगरी का और ज्यादा विस्तार हो गया। कहने को तो शासन-प्रशासन ने कोरोना के प्रकोप को देखते हुए कुछ पाबंदियां लगा रखी है, मगर प्रत्याशी उन की चिंदिया बिखेर रहे हैं। देह दूरी के नियम की जम कर धज्जियां उड़ रही हैं। कहीं पेंपलेटबाजी तो कहीं ढोल-थाली। कहीं बैठकें तो कहीं खांचा पॉलिटिक्स। कहीं चाय चू का इंतजाम तो कहीं सूर्यअस्त-कार्यकर्ता मस्त। गली-गुवाडिय़ों से लेकर चौक-चौबारों में चुनावी रंगत। कहीं से भी नही लगता कि हमने ढाई-तीन माह की घरबंदी भुगती और इन दिनों कोरोनाकाल चल रहा है।


सबसे ज्यादा मस्त टाबर टोळी। जिसने झंडी-परचे पकड़ा दिए, उसी के पक्ष में नारे। गली-कूंचों में नारों की गंूज। कही कमल तो कही पंजे के पक्ष में नारापंथी। आजाद प्रत्याशी भी पीछे नहीं। उनके समर्थक भी चुनाव चिन्ह के साथ प्रचार करते नजर आ जाएंगे। इधर बोतल के निशान को, तो उधर बल्ले के निशान को। इधर चाबी के निशान को तो उधर ढब्बू के निशान को…की गूंज। खाली स्थान पर और क्या-क्या भरा जाएगा, बताणे की जरूरत नहीं। जिसका जो चुनाव चिन्ह वो शीर्षक पूरा करके नारे लगवा सकता है।