थैलेसीमिया की यह है पहचान, जानिए छोटे बच्चे कैसे होते प्रभावित

थैलिसीमिया
थैलिसीमिया

थैलेसीमिया बच्चों को माता-पिता से अनुवांशिक रूप में मिलने वाला रक्त-रोग अर्थात जेनेटिक डिसऑर्डर होता है। इस रोग में शरीर की हीमोग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाती है, जिसके चलते रक्तक्षीणता के लक्षण पैदा हो जाते हैं। बीटा चेंस के कम या बिल्कुल न बनने के कारण हीमोग्लोबिन गड़बड़ाता है। जिस कारण स्वस्थ हीमोग्लोबिन जिसमें 2 एल्फा और 2 बीटा चेंस होते हैं, में केवल एल्फा चेंस रह जाते हैं जिसके कारण लाल रक्त कणिकाओं की औसत आयु 120 दिन से घटकर लगभग 10 से 25 दिन ही रह जाती है। इससे प्रभावित व्यक्ति अनीमिया से ग्रस्त हो जाता है। इसमें रोगी के शरीर में खून की कमी होने लगती है जिससे उसे बार-बार खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है।

अल्फा ग्लोबिन और बीटा ग्लोबिन

थैलिसीमिया
थैलिसीमिया

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत देश में हर साल सात से दस हजार थैलीसीमिया पीडि़त बच्चों का जन्म होता है। बात करे दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों की तो यह संख्या करीब 1500 है। भारत की कुल जनसंख्या का 3.4 प्रतिशत भाग थैलेसीमिया ग्रस्त है। हीमोग्लोबीन दो तरह के प्रोटीन से बनता है अल्फा ग्लोबिन और बीटा ग्लोबिन। थैलीसीमिया इन प्रोटीन में ग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया में खराबी होने से होता है। जिसके कारण लाल रक्त कोशिकाएं तेजी से नष्ट होती हैं। रक्त की भारी कमी होने के कारण रोगी के शरीर में बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। रक्त की कमी से हीमोग्लोबिन नहीं बन पाता है एवं बार-बार रक्त चढ़ाने के कारण रोगी के शरीर में अतिरिक्त लौह तत्व जमा होने लगता है, जो हृदय, लिवर और फेफड़ों में पहुँचकर जानलेवा होता है।

थैलेसीमिया को मुख्यत: दो वर्गों में बांटा गया है

थैलेसीमिया मेजर: यह बीमारी उन बच्चों में होने की संभावना अधिक होती है, जिनके माता-पिता दोनों के जींस में थैलेसीमिया होता है। जिसे थैलेसीमिया मेजर कहा जाता है।

थैलेसीमिया माइनर

थैलेसीमिया माइनर उन बच्चों को होता है, जिन्हें प्रभावित जीन माता-पिता दोनों में से किसी एक से प्राप्त होता है। जहां तक बीमारी की जांच की बात है तो सूक्ष्मदर्शी यंत्र पर रक्त जांच के समय लाल रक्त कणों की संख्या में कमी और उनके आकार में बदलाव की जांच से इस बीमारी को पकड़ा जा सकता है।

सीबीसी से एनीमिया का पता

थैलिसीमिया
थैलिसीमिया

पूर्ण रक्तकण गणनायानि सीबीसी से एनीमिया का पता लगाया जाता है। एक अन्य परीक्षण जिसे हीमोग्लोबिन इलैक्ट्रोफोरेसिस कहा जाता है से असामान्य हीमोग्लोबिन का पता लगता है। इसके अलावा म्यूटेशन एनालिसिस टेस्ट (एमएटी) के द्वारा एल्फा थैलेसिमिया की जांच के बारे में जाना जा सकता है।

थैलेसिमिया के लक्षण

  • बच्चों के नाख़ून और जीभ पिली पड़ जाने से पीलिया / जौंडिस का भ्रम पैदा हो जाता हैं।
  • बच्चे के जबड़ों और गालों में असामान्यता आ जाती हैं।
  • बच्चे की विकास रूक जाती हैं और वह उम्र से काफी छोटा नजर आता हैं।
  • सूखता चेहरा, वजन न बढऩा, हमेशा बीमार नजर आना, कमजोरी, सांस लेने में तकलीफ आदि ये भी लक्षण दिखाई देते हैं।

थैलेसीमिया से बचाव एवं सावधानी

थैलेसीमिया पी?डि़त के इलाज में काफी बाहरी रक्त चढ़ाने और दवाइयों की आवश्यकता होती है। इस कारण सभी इसका इलाज नहीं करवा पाते, आगे चलकर यह बच्चे के जीवन के लिए खतरा साबित हो सकता है। सही इलाज करने पर 25 वर्ष व इससे अधिक जीने की आशा होती है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, रक्त की जरूरत भी बढ़ती जाती है।

  • विवाह से पहले महिला-पुरुष की रक्त की जांच कराएं।
  • गर्भावस्था के दौरान इसकी जाँच कराएं।
  • रोगी की हीमोग्लोबिन 11 या 12 बनाए रखने की कोशिश करें।
  • समय पर दवाइयां लें और इलाज पूरा लें।

विवाह पूर्व जांच को प्रेरित करने हेतु एक स्वास्थ्य कुंडली का निर्माण किया गया है, जिसे विवाह पूर्व वर-वधु को अपनी जन्म कुंडली के साथ-साथ मिलवाना चाहिये। स्वास्थ्य कुंडली में कुछ जांच की जाती है, जिससे शादी के बंधन में बंधने वाले जोड़े यह जान सकें कि उनका स्वास्थ्य एक-दूसरे के अनुकूल है या नहीं। स्वास्थ्य कुंडली के तहत सबसे पहली जांच थैलीसीमिया की होगी। ॥ढ्ढङ्क, हेपाटाइटिस बी और सी। इसके अलावा उनके खून की तुलना भी की जाएगी और खून में क्र॥ फैक्टर की भी जांच की जाएगी।

थैलेसीमिया का उपचार

थैलेसीमिया का इलाज रोग की गंभीरता, मरीज को हो रही स्वास्थ्य समस्याएं और अन्य लक्षणों के अनुसार किया जाता है। थैलेसीमिया के इलाज में प्रमुख रूप से निम्न ट्रीटमेंट शामिल हैं –

इसमें मरीज को हर दो से तीन हफ्तों में खून चढ़ाना पड़ता है, जिससे उसके शरीर में हीमोग्लोबिन के स्तर को कम होने से रोका जाता है। हालांकि, बार-बार खून चढ़ाने से शरीर में आयरन का स्तर बढ़ जाता है, जिसे आयरन ओवरलोड कहा जाता है। आयरन बढऩे से शरीर के अंदरूनी अंग क्षतिग्रस्त होने लग जाते हैं, जिनमें हृदय व लीवर भी शामिल हैं। इस स्थिति का इलाज करने के लिए मरीज को विशेष दवाएं दी जाती हैं, जिनकी मदद से अतिरिक्त आयरन को पेशाब के माध्यम से शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है।

इसके अलावा मरीज को स्वास्थ्यकर आहार व अन्य सप्लीमेंट (जैसे फोलिक एसिड) आदि भी दिए जाते हैं, ताकि शरीर को स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाएं बनाने में मदद मिले।

थैलेसीमिया के लिये बोन मैरो या हेमेटोपोएटिक सेल ट्रांसप्लांट की भी संभावनाएं हैं। बोन मैरो या हेमेटोपोएटिक सेल ट्रांसप्लांट में बोन मैरो में थैलेसीमिया पैदा करने वाली कोशिकाओं को मिटाने के लिए हाई कीमोथेरेपी दिया जाता है, इनमें फिर डोनर से लिया गया स्वस्थ सेल्स को प्रतिस्थापित किया जाता है। डोनर वह व्यक्ति है जिसका ह्यूमन -ल्यूकोसाइट एंटीजन (एचएलए) रोगी के साथ मेल खाता है, आमतौर पर अपने भाई-बहन। रोगी जितना युवा होगा इसका परिणाम उतना हीं अच्छा होगा। इसके अलावा इस रोग के रोगियों के अस्थि मज्जा (बोन मैरो) ट्रांस्प्लांट हेतु अब भारत में भी बोनमैरो डोनर रजिस्ट्री खुल गई है। थैलेसीमिया से पूरी तरह से निपटने के लिए, विशेषज्ञों की सलाह और उनके द्वारा बताए गए उपायों का पालन करना आवश्यक होता है। इस बीमारी के खिलाफ लडऩे के लिए हमें समुदाय के साथ मिलकर काम करना होगा।

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