आंखें खोलो माट्साब …, हैरत की बात होती तो चला देते। बात अचंभे की होती तो भी चल जाती। आश्चर्य होना कोई नई बात नही है पर वहां जो होता दिख रहा है उसे हैरत, अचंभे या आश्चर्य से नहीं जोड़ा जा सकता। आंखें खोलो माट्साब … कहने मे अचकच हो रही है मगर कहना तो पड़ेगा। मजबूरी में नहीं, खुल्ले-खाले में कि वहां जो दिख रहा है वह काफी अफसोसजनक है।
अफसोस से आगे बढें तो बात शरमनाक होने तक पहुंच सकती है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे। कान यूं पकड़ो या यूं बात एक’इज। कान को इधर से पकड़ो या उधर से, कोई फरक पडऩे वाला नहीं। ऐसा तो हो नहीं सकता कि कान पकड़ के उमेठने पर नाक में दर्द शुरू हो जाएगा या कि कान खींचने पर कमर में मोच आ जाएगी।
आंखें खोलो माट्साब : चाकू पे खरबूजा रखो या खरबूजा चाकू पे
चाकू पे खरबूजा रखो या खरबूजा चाकू पे कोई फरक पडऩे वाला नही। कटना तो खरबूजे को ही पड़ेगा। कई बार मन में के एक सवाल ठाठे मारता है कि चाकू-खरबूजा और कटने वाली कहावत के महावत ने खरबूजे को ही क्यूं चुना। उसने चाकू की जगह तलवार या कृपाण को चुना होता तो एतराज जताना स्वाभाविक था।
उन्होंने चाकू की जगह गुप्ती या कवाडि़ए को लिया होता तो आपत्ति दर्ज करवाई जा सकती थी। चाकू के स्थान पर जमिया या छुर्रा उछाला जाता तो अंगुली उठाई जा सकती थी। खरबूजे को कटने के लिए चुना तो सवाल उठना वाजिब था। वो चाहते तो मतीरे को आगे कर सकते थे। वो चाहते तो काचरे का जिक्र कर सकते थे।
वो चाहते तो टिंडे-तौरई या लॉकी को ले सकते थे। कटने के लिए भतेरी चीजें हैं। आलू है-प्याज है-टमाटर है। जब काटना ही था तो किसी को भी काटा जा सकता था। इतनी सारी वस्तुओं में से सिर्फ खरबूजे को ही चुनना इस बात पर शक पैदा करता है कि हो ना हो उस कहावत के पीछे खरबूजा विरोधी तत्वों का हाथ था।
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शक उस समय और ज्यादा पुख्ता हो जाता है तब खरबूजे का नाता रंग बदलने से जोड़ा जाता है। खरबूजा विरोधी ताकतें यही नहीं रूकी। खरबूजा विरोधी तत्व यहीं तक सीमित नही रहे। उसे रंग बदलने में माहिर बता दिया। कह दिया-‘खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है।
आंखें खोलो माट्साब : रंग बदलने की कला में गिरगिट सर्वोपरि
वो भूल गए कि रंग बदलने की कला में गिरगिट सर्वोपरि है। गिरगिट रंग बदलने में सबसे आगे। गिरगिट रंग बदलने में अव्वल। वो भूल गए कि मानखा जिस प्रकार रंग बदलता है वैसा कोई नही बदल सकता। वो भूल गए कि सियासतअली रंग बदलने मे मीर। राजनेता जैसे रंग बदलते हैं, वैसा रंग पेंटर, डिजायनर अथवा इंटीरियर डेकोरेटर भी नहीं बदल सकता मगर बदनाम खरबूजे को कर डाला।
आंखें खोलो माट्साब : खरबूजा विरोधी ताकतों के पीछे मतीरा
रंग बदलने में माहिर रहने का ठीकरा खरबूजे पर फोड़ डाला। इससे साफ लगता है कि हो ना हो खरबूजा विरोधी ताकतों के पीछे मतीरा या काचरा समर्थक जमात का हाथ था। ‘हो ना हो को इसलिए घसीटा कि हाथ हो भी सकता है, नहीं भी। हैरत की कोई बात नहीं। पर वहां हैरत रह-रह के ठाठे मार रही है।
ठाठासागर पे चादर चल रही है। जहां जो सामग्री होनी आवश्यक है वहां रोटी-बाटी और भांडों का जोर ज्यादा और जिसकी जरूरत उसका टोटा। मान लिया कि शासन-प्रशासन ने शरम ताक पे रख दी। गुरूजनों ने गुरूपना दिखाया होता तो कम से कम वो तो शरम से गढऩे से बच सकते थे, पर वहां भी स्थिति ठीक नहीं।
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आखा राजस्थान उससे मिलती-जुलती समस्या भुगत रहा
बाड़मेर जिले को एक चावल के रूप में देखा जा सकता है वरना पूरी देग में वही स्थिति है। आखा राजस्थान उससे मिलती-जुलती समस्या भुगत रहा है। ऐसा पिछले लंबे समय से चल रहा है मगर ना किसी के कान में ना वो आह पड़ी ना किसी ने देखा। सुना भी और देखा भी पर उन पर ना देखा और ना सुना का टेग तो कभी का टंग चुका है।
छह-सात माह से यही स्थिति
खबर आई कि सरकारी स्कूलों में चॉक, डस्टर और साबुन जैसी मूल वस्तुएं ढूंढे नहीं मिल रही। सबका टोटा। तीनों की तीनों स्कूल की जान पर एक भी उपलब्ध नहीं। राज्य सरकार कम्पोजिट स्कूल ग्रांट राशि का बजट आवंटित करना भूल गई। इस बजट से शाला की छोटी-मोटी जरूरतें पूरी की जाती है। पिछले छह-सात माह से यही स्थिति चल रही है। स्थिति शरमनाक, वो इसलिए कि स्कूलों में रोटी-बाटी मिल जाएगी।
स्कूल में रोटी जरूरी-चॉक नहीं
बरतन-भांडे मिल जाएंगे। भगोने-गिलास मिल जाएंगे। चॉक, डस्टर टोटा। हाथ धोने के लिए साबुन भी नहीं। स्कूल में रोटी जरूरी-चॉक नहीं। मान लेते हैं कि सरकार बेशरमाई दिखा रही है। गुरूजी भी दरियादिली नहीं दिखा रहे। सरकार उन्हे 50-60 हजार रूपए तनखा देती है। हजार-दो हजार स्कूल की जरूरतों और बच्चों की सहायतार्थ लौटा दिए जाएं तो भूख आने वाली नहीं।
एक भी गुरू आगे नहीं आया
सब की सहायता से चॉक, डस्टर, आराम से जुटाया जा सकता है मगर एक भी गुरू आगे नहीं आया। मान लो कि सरकार को शरम नहीं आणी है, ऐसे में गुरूवर आंखें मींच कर बैठे रहेंगे? हमारे हिसाब से नहीं। आंखें खोलों माट्साब..आंखें खोलो..चे बच्चे भी अपने ही है। हमने तो आह्वान कर दिया। देखने की बात ये कि आंखें कितनों की खुलती है।