लाट्साबों का टीकाकरण

यहां भी दो बातें। दो धारा यहां भी। चाहे उलटी कह दो या सीधी। चाहे सीधी कह दो या उलटी। बात एक ‘इज। सिक्के का एक पहलू ठीक बताता है। दूसरा कहता है यह उचित नही है। सिक्के का एक पहलू कहता है उनमें तो शरम नही है, हमी उनकी तरफ चले चलते है। दूसरा कहता है-ऐसी कौनसी मेहंदी रची हैं, जो उन्हें पांच-पच्चीस कदम चलने में भी जोर आ रहा है। ऐसे कौन से लाट्साब है, जो लल्ला-पुच्चू की जा रही है। आखिर उनकी भी तो जिम्मेदारी बनती है। हां, कोई दिव्यांग हो। दृष्टिबाधित हो। वृद्ध या वयोवृद्ध हो। बीमार या लाचार हो। हालात से मजबूर हो। तब तो बात समझ में आती है। हट्टों-कट्टों के लिए द्वार पर पहुंचना हमारे हिसाब से ठीक नही है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
दो बातों और दो धाराओं का मतलब पक्ष और विपक्ष से। वो पक्ष या वो विपक्ष नहीं जो सियासतबानों की जुल्फों में उलझा नजर आता है। ना वो पक्ष जो विपक्ष की बातों को दबा देता है। ना वो विपक्ष जो बजाय गंभीर मुद्दों पर सदन में चर्चा करने के, हाका दड़बड़ करके बेशकीमती वक्त जाया करता है। उसके शोरगुल में हम-आप के खून-पसीने की कमाई के हजारों-लाखों रूपए बरबाद हो जाते हैं।
दो धाराएं हर क्षेत्र में फूटती दिखाई देती है। ऐसा होना भी चाहिए मगर दोनों का स्तर हो। जहां किसी का स्तर गिर जाता है वहां सब कुछ स्तरहीन हो जाता है। देश की राजनीति कैसी हुई जा रही है। सब देख रहे हैं। नेतों का नैतिक स्तर गिर रहा है या उठ रहा है। सब देख रहे हैं। उनकी देखादेखी उनके चंगु-मंगु भी उसी हवा में बह रहे हैं। आप ने चुनावी घोषणा-पत्रों के बारे में तो सुन ही रखा होगा। यकीनन सुन रखा होगा। हो सकता है बांचा भी हो। उनमें वादे या दावे जो भी किए जाते हैं, उन्हें पढ कर हंसी आती है।
सही में देखा जाए तो चुनावी घोषणा पत्रों की घोषणाएं सिर्फ करने के लिए होती है। चुनाव खतम-वादे खतम। याद दिलवाओ तो सुनने को मिलता है-भाई वो तो चुनावी जुमले थे।Ó कुछ घोषणाएं अमल में भी लाई जाती है। यह बात दीगर हैं कि उनमें से कुछ की उम्र कम होती है। कुछ कछुआ चाल चलती नजर आती है। कुछ जमीन पे चलती-फिरती गाहे-बगाहे नजर आ जाती हैं। उनमें से ज्यादातर का फायदा सत्तारूढ़ पारटियों के नेतों के चहेतों तक पहुंचता है। कालिया टाइप के लोग दूर खडे ताकते रह जाते हैं।
हम ने भतेरी पारटियों के चुनावी जुमला पत्र देख रखे है। इन का बांचा। उनका भी पढा। इस पर हंसी आई। उनकी घोषणाओं पर चेहरे पे मुस्कराहट बिखर गई। वो घोषणा करे या ऐलान, अपन को क्या। मगर कई घोषणाएं अच्छी नही लगती। जिन्हें लगती हैं-उन्हें लगती होगी। जिनको फायदा मिल रहा है। उन्हें मिल रहा होगा मगर हम उन्हें ठीक नहीं मानते। यह भी मानते हैं कि हमारे-आपके ठीक मानने या ना मानने से उनकी सेहत पे कोई फरक नही पडऩे वाला। मगर यह नही जानते कि ऐसा करके वो उन्हें आलसी और भिखारी बना रहे हैं।
विद्यार्थियों को स्कूटी-लेपटॉप देने की बात तो समझ में आती है। स्मार्टफोन देने की घोषणा समझ से परे। आप मुफ्त में चावल-गेहूं-शक्कर-दाल देने की घोषणा कर मतदाताओं को आलसी नही बना रहे हो? तुम मुझे वोट दो-मैं तुम्हें फोकट में चावल दूंगा। जब किसी को फोकट में रोटी-बाटी मिल रही है तो वह काम-धंधा क्यूं करेगा? खाए और पडे। यही उनकी दिनचर्या। तुम्हारी भीख उन्हें आलसी बना रही है। कोई टीवी देने की बात करता है-कोई कपड़ों-लत्तों की। कोई क्या देने का दम भर रहा है-कोई क्या। जब ठाले बैठे गेंहू-चावल मिल रहा है तो मजदूरी पे कौन जाएगा। एक तो मानखा पहले से ही आलसी था और ये सियासतअली उसे और ज्यादा आलसी बना रहे हैं।
हथाईबाजों को शासन-प्रशासन की वो योजनाएं भी फूटी आंख नही सुहाती जिनमें ‘आप के द्वार का दावा किया जाता है। जनप्रतिनिधि आप के द्वार आएं तब तो है मजेदारी। बच्चों को स्कूल में भरती करवाने के लिए माट्साब-बहन जी अभिभावकों के हाथ जोड़े। यह ठीक नहीं। आखिर उनकी भी कोई जिम्मेदारी बनती है। बच्चे पढ लिख के माट्साब को निहाल करने वाले नहीं। खुद अभिभावकों को इसके लिए आगे आना चाहिए ताकि बच्चे समाज और देश का गौरव बढा पाएं। वोट देने के लिए जाने की प्रार्थना करो। मलेरिया-हैजा रोकने के लिए मेडिकल कार्यकर्ता घर-घर जा के रिक्वेस्ट करें। क्यूं भाई। आखिर हमारी भी समाज के लिए कोई ड्यूटी बनती है। हम उनसे नजरें क्यूं फेर रहे है?
अब जोधपुर नगर निगम टीकाकरण आपके द्वार कार्यक्रम शुरू करवा रही है। इसके तहत 45 वर्ष से ऊपर आयु के लोगों का घर-घर जाकर टीकाकरण किया जाएगा ताकि उन्हें कोरोना से बचाया जा सके। इसमें दो धाराएं। निगम का यह कदम उचित भी है। नही भी। उचित इसलिए कि उसे लोगों की फिकर है। अनुचित इसलिए कि वो लोगों को और ज्यादा आलसी बना रही है। वो ऐसे कौन से लाट्साब हैं जो घर पे आ के टीके लगाए जाएं। तुम हट्टे-कट्टे लोग केंद्र पे जाकर टीके नहीं लगवा सकते? बीमारों-वृद्धों और लाचारों की सेवा तो बनती है। चलते-फिरते-खाते-पीते लोगों का घर जाकर टीकाकरण करना हमें तो नही सुहा रहा।

यह भी पढ़ें-पुलिस का झांपो अभियान