हम दो-हमारे….!

अगर कोई शीर्षक के अधूरेपन को पूरा करने को कहे, याने कि ‘हमारे… के आगे का रिक्त स्थान भरने को कहें जो अधिकांश लोग वहीं भरेंगे जो लिखते-पढते-सुनते-देखते आए हैं। कोई इधर से उधर भटक जाए, ऐसा होना संभव नहीं है। हां, एक और दो का फरक जरूर हो सकता है।

कोई लिखेगा एक-तो कोई दो..। दोनों पार्टियां अपने हिसाब से सही, मगर यहां बिठाई जाने वाली संख्या अलग ही। भले ही आप उसे परिवार कल्याण योजनाओं को ठेंगा दिखाने वाली कहें। मगर जो है-वो है और जो है-वो सामने आ जाएगा। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

दुनिया का तो पता नहीं, मगर हमारे देश में जितनी भी योजनाएं-अभियान अथवा सामाजिक आंदोलन चल रहे हैं उनके साथ कोई ना कोई पे्ररक वाक्य चस्पा जरूर है। कई बार तो इन वाक्यों के लिए देश भर से प्रस्ताव मांगे जाते हैं। प्रतियोगिताओं के लिए प्रतिष्ठियां आमंत्रित की जाती है। देग के चावल के रूप में जोधपुर को लेते हैं। जोधपुर की दो-चारेक विशेषताएं कम से कम शब्दों में बयान कीजिए, तो कोई कहेगा’-अपणायत का शहर। कोई कहेगा-‘खंडों और खावणखंडों का शहर।

हो सकता है ये कुछ अलग दिखा दे और वो कुछ और। कुल जमा प्रविष्ठियां अगणित आ जाणी है। यह तो सिरफ जोधपुर की बात है और किसी राष्ट्रव्यापी अभियान-योजना के लिए मंतर आमंत्रित किए जाएं तो कितनी प्रविष्ठियां आएंगी। इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। ध्येयवाक्य तो ध्येय वाक्य कई दफे किसी बड़े आयोजन के लिए ‘चिन्ह भी आमंत्रित किए जाते हैं। जिन में से सबसे सुट्ठा मंतर उस योजना के साथ हमेशा के लिए जुड़ जाता है और जिसका चित्र-मोनोग्राम सब से उत्तम उसका उपयोग आयोजन तक और उसके बाद वह देश की धरोहर बन जाता है। भारत में हुए ‘एशियाई खेलों के आयोजन को ही ले ल्यो। उस दौरान ‘अप्पू का चयन किया गया था। आखे देश से प्रविष्ठियां मंगवाई।

भारतवासियों के साथ भारतवंशियों ने भी अपनी कलाकृतियां भेजी। उन लाखों-करोड़ों में से ‘अप्पू का चयन किया गया। उसने खेलों के दौरान तो धूम मचाई ही-लोगों ने अपने बच्चों का निकनेम भी-‘अप्पू रखना शुरू कर दिया। मूल नाम अर्पित-घर में अप्पू। स्कूल में नाम अर्पिता-प्यार से अप्पू।

यह तो एक चावल देखा। दीगर चावल देखें तो वहां भी इससे मिलते-जुलते टोटके नजर आएंगे। योजना-अभियान चाहे किसी भी विभाग या मंत्रालय से जुड़ा हो, उसमें से कोई ना कोई धारा अवश्य फूटती नजर आती है। केंद्र और राज्य सरकारें शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए कितने जंतर करती है। हमारे बखत में इतने सरकारी स्कूल कहां थे। कै तो थी माट्साब की पौशाळे और सरकारी स्कूल थे तो भी इक्के-दुक्के। हम मीलों लंबा सफर तय कर स्कूल जाया करते थे। चार गांवों के बीच एक प्राइमरी स्कूल और आठ गांवों के बीच मिडल। उसके बाद या तो शहरों की ओर कूच या फिर दूर गांव में या फिर पढ लिए खूब अब काम-धंधे पे लग जाओ।

आज सरकारी के साथ-साथ निजी स्कूलों की भी भरमार। इसके बावजूद साक्षरता दर उतनी नही बढ रही-जितनी बढनी चाहिए। बालिकाओं को शिक्षा से जोडऩे के लिए-‘पढी-लिखी हो लड़की-रोशनी दो घर की का मंतर फैलाया गया। नशे के विरोध में-‘नशा नाश का द्वार के सुर गूंजाए जाते हैं। रक्तदान-महादान से ले के नैत्रदान महादान के गीत गाए जाते है। स्वास्थ्य-बचत और पौधारोपण से जुड़े कार्यक्रमों और योजनाओं के अपने ध्येय वाक्य हैं।

हथाई के शीर्षक के रूप में जो आधा-अधूरापन लटकाया गया है, उसके तार परिवार कल्याण योजनाओं और परिवार नियोजन से जुड़े। कहीं छोटा परिवार-सुखी परिवार का सहारा तो कहीं हम दो-हमारे दो के सुर। आगे चल के हम दो तो यथावत और हमारे दो की जगह एक कर दिया गया। हथाईबाजों ने हमारे के आगे.. खाली जगह छोड़ के भरने का निमंत्रण दिया तो कई का निशाना एक की ओर तो कई का दो की तरफ। मगर हमारी नजर कहीं ओर निशाना कहीं ओर।

हवा नागौर से आई। वहां के एक सभ्य-समझदार-शिक्षित और व्यवसाय के क्षेत्र में मजबूत कहे जाने वाले समाज ने एक अजब-अजीब फैसला लिया। पदाधिकारियों ने दो से अधिक संतान पैदा करने वालों को प्रोत्साहन राशि देने की घोषणा की है। यह निर्णय समाज की पंचायत पोल में लिया गया। तीसरी संतान होने पर बच्चे के नाम की 50 हजार की एफडी। चौथी पे एक लाख और पांचवी पे दो लाख की एफडी समाज की महासभा की ओर से करवाई जाएगी। समाज के मुखिया का कहना है कि घटती जनसंख्या को बढाने के लिए यह निर्णय लिया गया।

कोई इसे परिवार नियोजन के नारे की धज्जियां उडाना कहे तो कहे। कोई इसे परिवार कल्याण योजना को धत्ता बताना कहे तो कहे। उनने हम दो-हमारे.. पे सवालिया निशान तो लगा ही दिया। जिसे जितनी संख्या भरनी है-भरे।

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