चाहे भूखे-तिरसे रहो … घर में रहो…

‘घर में रहें-सुरक्षित रहें। लोगन की तो जुबान चल गई और हो गई इतिश्री। पर जो लोग घर में बंद है उनसे पूछो कि उनपे क्या बीत रही है। कोई यह ना समझे कि हम कोरोनाकाल वाक्यों की तौहीन कर रहे हैं। कोई यह भी ना समझे कि हम सरकारी गाइड लाइन की एक लाइन की खिल्ली उड़ा रहे हैं। हम वही लिख रहे हैं, जो काल-परिस्थितियां लिखवा रही हैं। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
‘कोरोनाकाल वाक्य पर कई लोगों को हैरत हो रही होगी। होणा भी वाजिब है। ऐसे वाक्य पहले ना कभी घड़ीजे और ना कभी उनका लोकार्पण हुआ। होता भी कैसे, कोरोना का रोना पिछले एक साल से शुरू हुआ। बीच में तीन चार महिने राहत मिली। अब रोना कोहराम में बदल गया। वर्ष 2020 के दिसंबर एंड और नए अंगे्रजी साल की शुरूआत में लग रहा था कि ‘भाग कोरोना भाग…के हमारे सुर सफल हो गए मगर तीन-चार माह बाद ही वापस लौट आया जो अब तक लुटलुटी लगा रहा है।
इस काल में कई वाक्य उछले। कई टोटके सामने आए। कई राय बहादुर परगट हुए। कई सलाहखान अवतरित हुए। गली-गुवाड़ी में मश्विरानंदों की भरमार। अपन इन सब पे चर्चा कर चुके है। ऐसा नहीं कि चर्चा पे चर्चा हो जाए तो पांडु चालान काट देगा। जब पाठ्यक्रम रिवाइज करने का प्रावधान है, तो हम आप रिपिट क्यूं नही कर सकते है। जब खेल में एक्शन रि-प्ले का नियम है, तो इस पे अपन क्यूं नहीं चल सकते । जब खबरिया चैनल्स एक खबर को चौबीस कलॉक घिस सकते हैं तो हम सार्थक चर्चा बार-बार क्यूं नहीं कर सकते।
सोचा भी नही था कि ऐसे दिन देखने पड़ जाएंगे। सोचा भी नहीं था कि हमेशा एक-दूसरे से गले मिलकर हंसी-ठठ्ठो करने वाले हम लोगों के बीच फासले बढ़ जाएंगे। इस में सोशल डिस्टेंस का महिमा मंडन भी किया जा रहा है। हमें सामाजिक दूरियों पर एतराज। इस की जगह देह दूरी या शारीरिक दूरी का उपयोग किया जाए तो ज्यादा बेहतर होगा। ऐसा नहीं कि कोई हमारे ओर हाथ बढ़ाए और हम नाक चढा के मुंह फेर लें। ऐसा होने पर मुस्करा के हाथ जोडऩा मुनासिब रहेगा। यही मंतर सोशल डिस्टेंस और देह दूरी पे लागू किया जा सकता है। सच कहें तो समाज में पहले से ही इतनी दूरियां बनी हुई है कि नापना मुहाल। ये समय फासले कम करने का है। दूरिया कम हो भी रही है। सोशल मीडिया पे इन दिनों टीकाकरण पर प्रसारित एक वीडियो मन को लुभा रहा है। देख कर आंखे नम हो जाती है। उसके आखिर में कहा जाता है – ‘सहयोग मांगिए … सहयोग दीजिए…सहयोग पाइए…। ऐसा होने पर वो दिन दूर नही जब हम जितेगे कोराना हारेगा।
इन दिनों चल रहे वाक्यों को अगर आदर्श वाक्य कहा जाए, तो गलत नही है। संत सुजान अपने आदर्श वाक्यों से समाज को एक नई राह दिखाते है। ज्ञानी-ध्यानी विद्वानी के श्रीमुख से आदर्श वाक्य बरसते हैं। वेद-ग्रंथ-पुराणों में से निकलने वाले देव वाक्यों से हमें नई दिशा मिलती है। हमें स्कूल वो दिन याद हैं। आपको भी होंगे। यकीनन होंगे। कोई अपना बचपन भूल जाए… जो अपने स्कूल के दिन भूल जाए! ऐसा हो ही नही सकता। उन दिनों हम स्कूल के बरामदे में टंगे ब्लैक बोर्ड पर ‘आज का आदर्श वाक्य लिखा करते थे। नित नया आदर्श वाक्य। हर वाक्य से प्रेरणा की धारा फूटती थी। कभी ‘चोरी करना पाप है। तो कभी ‘नारी का सम्मान करो। कभी ‘माता-पिता की सेवा करो तो कभी छुआछूत मत करो।’इन दिनों के अपने आदर्श वाक्य। हाथ धोते रहो। मास्क लगाओ। सेनेटाइजर का उपयोग करो। टीकाकरण कराओ और घर में रहो सुरक्षित रहो आदि वगैरह।
हम इन सब के पक्षधर। हम इन सब आदर्श वाक्यों को सिर पे धारण किए बैठे है। पण इस के भी अपने-अपने अनुभव। कहीं खट्टे। कहीं मीठे। कहीं कड़वे। कहीं नमकीन तो कहीं खारे खट्ट। घर में पड़े रहने का दर्द उस आदमी से पूछो जो दिन भर खपने के बाद शाम को कुछ कमा कर जब घर आता है, तब चूल्हे में जान आती है। घर में पड़े रहने का दर्द उस नाई अंकल से पूछो जो बाल सामने लाकर सच्चाई से रूबरू करवाने के लिए चावे थे। घर में पड़े रहने का दर्द उस रेहड़ी वाले से पूछो जो हरेक माल दस रूपए के सुर बिखेरा करता था। घर में पड़े रहने का दर्द उस कमठा मजदूर से पूछो जिसे सुबह मजदूर मंडी में घंटों खड़ा होने के बावजूद मजदूरी नहीं मिल रहीं। घर में पड़े रहने का दर्द उस चाय वाले से पूछो जिसके कान हमेशा दो चाय दे रे … की राग सुनते-सुनते पक गए। घर में पड़े रहने का दर्द उन लोगेां से पूछो जिनके धंधे ठप्प पड़े है। ‘पोर तो लोगों ने मदद भी की थी। कच्ची पक्की सामग्री घर दे कि गए थे। इस बार उस के भी टोटे।
अब आप ही बताइए ऐसे में कोई घर में पड़े रह कर भूख-अभाव कब तक सहेगा। मोट्यार तो पेट काट लेंगे। वो बच्चे क्या करें जिनके लिए हम खपते हैं। दूध तो छोडि़ए – चाय भी नसीब नहीं। गरम होगी तो ठंडी बचेगी। फिर भी घर में रहना मजबूरी। घर में रहे – सुरक्षित रहें। चाहे भूखे रहें-तिरसे रहे – पण घर में रहें।