अबे क्यूं आवेला भई…

शीर्षक को जितने कोण से देखो, अलग-अलग हिसाब से दिखाई देगा। ऊपर से देखो तो अलग एंगल। नीचे झांको तो अलग हिसाब। दाएं से टटोलो तो नया अंदाज। बाएं से देखो तो अलग सीन। दिखाई देने का मतलब ये नही कि ऊपर से देखने पर भई आवेला पहले नजर आएगा और नीचे से देखने पर अबे क्यूं बाद में। वरन ये कि हैडिंग की समझ अपने हिसाब से। अपना एक ही हिसाब-एक ही किताब। एक ही बही-एक ही खाता। शहर की एक हथाई हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

एक बही-एक खाता हम-आप जैसे लोगों के लिए आम है। हथाईबाज भी अपन जैसे। अपन भी उन जैसे। हथाई पर कारों-कोठियों वाले तो आकर जमते नही है। ऐसा भी नही कि शास्त्रीनगर के किसी सेक्टर में रहने वाला बंदा अपनी फैक्ट्री मंगल कर के घर जाए। हिनान-हंपाड़ा कर रोटी-बिजी खाए और कार लेकर शहर की ठेठ गलियों में स्थित हथाई पर रात काळी करे फिर घर जाए और सुबह जल्दी उठकर नित्य कर्म के बाद वापस फैक्ट्री। कारों-कोठियों वालों के नसीब में हथाई कहां। उनके विचार अलग उन की सोच अलग।

वो सोचते हैं कि चार-छह घंटे वहां खराब करने से अच्छा है कि यह समय धंधे में लगाया जाए तो चार पैसे ज्यादा आ जाएंगे। उनका जी हाय धन.. हाय धन..। धन धनाधन.. धन.. में रमा रहता है जब कि हथाईबाज टेन टू सिक्स के बाद टोटली फ्री। वैसे वो दफ्तर में भी हथाईयां ही करते हैं। उनकी सोच है कि रात को हथाई पर जो ज्ञान मिलता है वह अमूल्य है। उसकी कोई कीमत नहीं। पइसा आज है.. कल नहीं..। ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता बशर्ते आगे से आगे बांटा जाए। हथाई की मस्ती के आगे सब कुछ फीका।


यदि इन दोनों वर्गों में से शीर्षक का सटीक मतलब पूछ लिया जाए तो कारों वाले बगले झांकने लगेंगे। कोठियों वालों की बोलती बंद होणा तय। इसकी पलट में हथाईपंथी फटाक से कह देंगे कि इसमें उलाहने का तड़का नजर आ रहा है। वो इसे मतलब की मनुहार से जोड़ते हैं। राजिए का दुहा गाकर साफ भी करते हैं-‘मतलब री मनवार चुपके लावे चूरमो, बिना मतलब राब ना पावें राजिया..। इसके माने मतलब साधने के लिए घी-गुड़-शक्कर का चूरमा जिमाया जाता है। और लो सा… और लो सा..।

आप ने म्हारी सौगंध है.. कह के जबरदस्ती परोसा जाता है और मतलब निकलने के बाद ‘राब भी नसीब नही होती। चूरमा दूर की बात कोई राब तो क्या छाछ की मनुहार भी नही करता। इन हालातों के पाश्र्व में-‘अबे क्यूं आवेला भई..साफ नजर आता है। अर्थ-भावार्थ सब दिखाई देते हैं। समाज मतलबपरस्तों से भरा पड़ा है। चौक-चौबारों से लेकर गली-गुवाडिय़ां अटी पडी है। हर घर में स्वार्थी मिल जाएंगे।

घर-घर में मिल जाएंगे। फुरसत मिले तो खुद के भीतर झांकने का कष्ट करना, हो सकता है वहां भी बिराजा मिल जाए। वो जमाने हवा हुए जब लोगबाग ठावे थे। आधीरात को उठकर सेवा में निस्वार्थ भाव से जुट जाते थे। दुख-सुख में चौबीसों कलाक तैयार। एक आवाज में पूरी गुवाड़ी जुट जाया करती थी। अब वो बातें हवा हो गई समझो। जरूरत पडऩे पर मोबाइल पे संपर्क साधने की कोशिश करो तो कह देंगे-मैं तो सोजत आयोड़ों हूं।अरे भाई आधा घंटे पहले तुम गली में डोल रहे थे और इत्ती देर में सोजत पहुंच गए? पण उन्हें कौन कहे और क्या कहे। कहें तो किसी की सेहत पे फ रक पडऩे वाला नहीं। कुएं भांग पड़ी वाली कहावत बूढी हो गई अब तो भांग की बारिश हो रही है।


ज्यादातर लोग मतलबी। भतेरे लोग स्वार्थी। कुछ लोग सुट्ठे भी। कुछ लोग भले भी सियासत में तो सौ फीसदी स्वार्थीमल। दावा करते हैं जनता का सारथी होने का, निकलते हैं स्वार्थी। वोट लेणे के बाद कभी-कभार दिख जाएं तो बात कुछ और वरना ढूंढते रह जाओगे। ऐसे में हम लोग उलाहना भी देते हैं। अबे क्यूं आवेला भई या’ अबे क्यूं दिखेला भई। एक गंभीर मसले पर हुई बैठक ने हमारे उलाहने को सौ टका खरा साबित भी कर दिया।
कोटा में कल परसों कोरोना वैक्सीन की तैयारियों को लेकर जन प्रतिनिधियों की आमुखीकरण कार्यशाला का आयोजन किया गया मगर जिले का एक भी विधायक कार्यक्रम में नहीं पहुंचा। कोटा जिले में 6 विधायक हैं। तीन पंजे वालों के-तीन कमलवालों के मगर विधायक हैं।

तीन पंजे वालों के तीन-कमलवालों के मगर सभी नदारद। जबकि मसला अत्यंत महत्वपूर्ण था। उनको तो बढ-चढ के भाग लेना चाहिए था मगर नही लिया। उन्हें फिलहाल वोट सो लेणे हैं नहीं। जनता से कोई गरज है नही जो प्रशासन बुलाए और वो चल दें। वोट लेणे के बखत तो दिन में चार बार फेरी लगाणे को तैयार और जीतने के बाद जनता जाणे और जनता का काम जाणे। ऐसे में उलाहना वाजिब है अबे क्यूं आवेला भई..।