
पहले उनके प्रति कभी-कभार थोड़ी बहुत हमदर्दी हो जाया करती थी। बिचारों की क्या गत हो गई। एक जमाना था जब दिल्ली के साथ-साथ लगभग सभी सूबों में उनका राज था। आज कोने में सिमट गए। हाशिए पर पड़े हैं। अब लग रहा है कि जो लोग किसी के आंसुओं की कीमत ना समझे। जो लोग अपनों के आंसू को आंसू और दूसरों के अंासू को नाटक-नौटंकी समझे उनका यही हश्र होना था। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
कई लोगों को हैरत हो रही होगी कि जिन हथाईयों में हंसी-ठठ्ठे गंूजते हैं वहां आज आंसू कहां से आ गए। यह सही है कि वहां मसखरी होती है। यह सही है कि वहां जोरदार चासापंथी होती है। यह सही है कि वहां ठहाके गूंजत हैं और यह भी सही है कि वहां किसी के दुख में डूबा भी जाता है। किसी के जख्म सहलाए जाते हैं। जख्मों पे मरहम लगाया जाता है। हथाई पर हर जख्म की दवा मिलती है। डॉक्टरों का बस चलता तो वो अपने रोगियों को एक हफ्ते हथाई पर बैठने की सलाह दे डालते है। हथाई के आगे गोली-मादळिए-इंजेक्शन-पीने की दवा सब फीके। हथाई पे जाइए-तंदुरस्ती पाइए। इसका मतलब यह भी नहीं कि हथाईबाजों को आंसूओं की कीमत का पता नहीं।
जिंदगी का अनुभव प्राप्त कर चुके लोगों का कहना है कि आंसू व्यक्ति के दिल की जुबान होते हैं। आंखों से निकले आंसू खुद-ब-खुद दास्तां बयां कर देते हैं। खुशी के आंसू-गम के आंसू। कवि कहता है-‘अगर दिल में गम हो तो रोते हैं आंसू.. खुशी में भी आंखें भिगोते हैं आंसू..। दिल के दूसरे कोने से आवाज आती है-‘मैं हंस दू तो हंस दे ये आंसू.. मैं रोऊं तो रो दे ये आंसू.. ये आंसू मेरे दिल की जुबान हैं..।
आंखों से आंंसुओं का निकलना दर्द की पहली सीढी है। उसके बाद कोई ठुसक-ठुसक के रोता है, तो कोई दहाड़े मार-मार के। कोई सुबकता है तो कोई अपने आसुओं को जज्ब कर लेता है। आंसू छलकने का कोई समय नही होता। ज्यादा खुशी के साथ-साथ गम का पहाड़ टूटने पर आंसू छलक जाते है। कई लम्हें ऐसे आते हैं तब इंसान भावुक हो जाता है। उसकी आंखेें भर आती है। गला रूंध जाता है। किसी को गम में डूबा देख कर आंखें भर आती है। शहीदों की अंतिम यात्रा के समय आखा देश सुबक उठता है। कोई दिल-चीरता हादसा होते देख कर आंसू बह जाते हैं। आंखें डबडबा जाती हैं।
जहां तक हमारा खयाल है-समझने वाले समझ गए होंगे कि हथाईबाज आज आंसू धारा का जिक्र क्यूं कर रहे हैं। जो नही समझे उन्हें समझाना हमारा दायित्व है। कई लोग समझना ही नहीं चाहते। कई लोग जान के अनजान बने रहते हैं। तीसरी और चौथी केटेगरी के लोगों का कोई इलाज नहीं। उन्हें खुद के आंसू तो आंसू और दूसरों के आंसू घडिय़ाली नजर आते है। यदि ऐसा है तो समझ लो वो कोई सियासत अली है। राजनीति में दर्द को समझने वाले लोग भी है और किसी के आंसुओं की खिल्ली उड़ाने वाले भी। खिल्ली उड़ाने वालों की देश ने खिल्ली उड़ा दी। लक्खण ऐसे ही रहे तो अभी जो कोने-खांचे मिले हैं वह भी छिन जाणे हैं। इतना कुछ होणे के बावजूद उन ढीट लोगों को शरम नही आती। देखने वाले देख कर पिघल गए। आंखों देखे गवाह भी रूंआसे हो गए और ये नामुराद आंसू को नौटंकी करार दे रहे हैं। लगता है। उनने ने लाज-शरम बेच खाई है।
नौ फरवरी 2021 बरोज बुध को कांगरेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद के राज्यसभा से विदाई के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भाषण देते वक्त रूंआसे हो गए थे। उनका गला रूंध गया। पीएम सर भावुक हो गए। सियासत अलग है और रिश्ते अलग। राजनीति एक तरफ-व्यक्तिगत रिश्ते दूसरी तरफ। सरकारे बनती है-बिगड़ती है मगर रिश्ते अटूट रहते हैं। मोदी जी एक पुराने किस्से को याद कर रूंआसे हो गए। ऐसा पहले भी हो चुका है। वो एक बार संसद में भाषण करते समय भावुक हो गए थे। एक बार विदेश में अपनी माताश्री का जिक्र करते समय रो पड़े थे। सियासत अलियों ने ऐसे भावुक लम्हों को भी सियासत से जोड़ दिया। खास कर हर मसले पर खामखा की राजनीति करने वाले कांग्रेसियों ने।
इस बार भी उनने यही किया। उन्हें बाटला हाउस कांड पर पार्टी माता द्वारा कथित रूप से बहाए आंसू असली लगे। पार्टी माता द्वारा कथित रूप से पीएम पद लेने से इंकार करने पर चंगुओं-मंगुओं द्वारा बहाए आंसू असली लगे। उन्हें खुद गुलाम नबी आजाद के आंसू असली लगे और मोदी के आंसू नाटक। वाह रे हलकोडिय़ो..। कम से कम आंसुओं को तो बख्शो। थोड़ी तो शरम करो..। हमारा काम समझाना था। समझो तो ठीक वरना भोग तुम्हारे।