शोले: पचास साल बाद भी लोगों के जहन में ताजा है एक एक डॉयलाग और किरदार

फिल्म ‘शोले’ को रिलीज हुए आज 50 साल हो गए। 1975 में प्रदर्शित हुई यह फिल्म् भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर मानी जाती है। फिल्म के किरदार, चाहे वो जय, वीरू, गब्बर, ठाकुर, या बसंती हो, आज भी लोगों के दिलों में बसते हैं। बसंती का किरदार, जिसे हेमा मालिनी ने पर्दे पर उतारा, भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित किरदारों में से एक बन गया।

शोले’ से जुड़ी कुछ खास बातें
जय के रोल के लिए अमिताभ का नाम: धर्मेन्द्र ने बताया कि ‘शोले’ में जय के किरदार के लिए उन्होंने ही अमिताभ बच्चन का नाम सुझाया था।

शूटिंग का अनुभव: उन्होंने कहा कि बेंगलुरु के बाहरी इलाके में शूटिंग बहुत थका देने वाली थी। हर दिन कलाकारों को 50 किलोमीटर दूर गाड़ी चलाकर जाना पड़ता था, क्योंकि वहाँ कोई होटल नहीं था। इसके बावजूद, उन्हें शूटिंग में बहुत मजा आया।

करियर की सबसे पसंदीदा फिल्म: भले ही ‘शोले’ धर्मेन्द्र के करियर की सबसे अहम फिल्म है, लेकिन वह इसे अपनी सबसे पसंदीदा फिल्म नहीं मानते। उन्होंने बताया कि ‘शोले’ से ठीक दो महीने पहले रिलीज़ हुई उनकी फिल्म ‘प्रतिज्ञा’ उन्हें ज्यादा पसंद है।

‘प्रतिज्ञा’ क्यों है खास: धर्मेन्द्र के मुताबिक, ‘प्रतिज्ञा’ का किरदार उनके लिए ‘शोले’ के किरदार से ज्यादा चुनौतीपूर्ण था। इसमें उन्हें एक ट्रक ड्राइवर का रोल निभाना था, जो बाद में पुलिस वाले का वेश धारण करता है। यह एक किरदार के अंदर दूसरा किरदार निभाने जैसा था।

फिल्म की कहानी और नामकरण
शुरुआती नाम ‘अंगारे’ रखा गया था, लेकिन सलीम खान ने ‘शोले’ नाम सुझाया, जो बाद में फाइनल किया गया। सिप्पी ने बताया कि ‘शोले’ का आइडिया सलीम-जावेद के पास था, जो शुरुआत में केवल एक या दो लाइन का था। सिप्पी ने इसे एक एक्शन एडवेंचर फिल्म में बदलने का फैसला किया। जैसे-जैसे वे कहानी पर काम करते गए, फिल्म के बाकी किरदार अपने आप उभर कर सामने आए। सिप्पी को उस समय बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि यह फिल्म 50 साल बाद भी इतनी लोकप्रिय रहेगी।

शूटिंग लोकेशन
फिल्म की कहानी भले ही रामगढ़ गांव की थी, लेकिन शूटिंग के लिए बेंगलुरु को चुना गया। सिप्पी ने बताया कि उन्होंने आर्ट डायरेक्टर एम.आर. आचरेकर के साथ मिलकर लोकेशन देखी। बेंगलुरु का पथरीला इलाका और लैंडस्केप उन्हें बहुत पसंद आया। उन्होंने पत्थरों पर चढ़कर देखा और पाया कि वहां की घाटियां और पत्थर फिल्म के लिए एकदम सटीक थे। इसी जगह पर गांव का पूरा सेट बनाने का फैसला किया गया।

सेट का निर्माण
पूरा गांव का सेट बनाने में चार से पाँच महीने का समय लगा। इसमें गाँव, बाज़ार, पानी की टंकी, मंदिर और मस्जिद जैसी सभी चीजें शामिल थीं। सिप्पी ने बताया कि उनके खास साथी अजीज भाई, जो सेटिंग के इंचार्ज थे, उन्होंने 500 से अधिक वर्कर के साथ मिलकर यह सेट तैयार किया। शूटिंग शुरू होने के बाद भी सेट का काम जारी था। शूटिंग के दौरान सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए 50-60 रेलवे कर्मचारी और 300 से 400 लोग मौजूद थे।

गब्बर सिंह का किरदार
सिप्पी ने कहा कि वे इस फिल्म में कुछ भी बदलना नहीं चाहेंगे, क्योंकि लोगों ने इसे इतना पसंद किया है। वे मानते हैं कि फिल्म की सफलता का राज यह है कि हर सीन और हर डायलॉग बिल्कुल सटीक बैठ गया। उन्होंने विशेष रूप से गब्बर सिंह के किरदार का जिक्र किया और कहा कि अमजद खान की आवाज़, हाव-भाव और अदाकारी सब कुछ मिलकर बेहतरीन बन पड़ा, जिसके कारण आज भी लोगों को ये डायलॉग्स और सीन याद हैं।