
हमारे बखत के लोग शीर्षक पढते ही समझ गए होंगे कि इसे एक पुराने गाने की तर्ज पर लपेटा गया है। हम भी इस बात को स्वीकार करते हैं। हम ने कब कहा कि हैडिंग पर वेल्डिंग नही की गई है। हम ताल ठोक के कह रहे हैं कि तर्ज गाने की और राग वो जो इन दिनों लगभग सारे खबरिया चैनल्स पर सुनाई दे रही है। सुनते-सुनते कान पक गए मगर उनकी खटराग थमने का नाम नही ले रही। एक के बाद दूसरी। दूसरी के बाद तीसरी-चौथी। भगवान जाणे कब ये राग-खटराग थमेगी। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
हम तोड़भांग में तनिक भी विश्वास नही रखते ना हमारी ऐसी तासीर। बड़े-सयानों ने हमें हमेशा जोडऩे की सलाह-सीख दी, उसी पे चल रहे हैं और यह सच भी है कि जो आनंद जोडऩे में आता है वह और किसी में नहीं। हम उसी लीक पे चल रहे हैं। भविष्य में भी चलते रहेंगे-यह वादा रहा। कई लोगों को हमारे इस वादे-दावे पर शक हो रहा होगा। ऐसा होना नई बात नही है। इस बीमारी से भतेरे लोग ग्रस्त हैं। बड़े-सयानों ने शक-शंका नहीं पालने की भी सीख दी। कवि भी कहता है-‘दोसतों शक.. दोसती का दुशमन है.. अपने दिल में इसे घर बनाने ना दो..। मगर लोग हैं कि मानते नहीं। उनके दिल और दिमाग में चौबीसों घंटे शक का कीडा कुलबुलाता रहता है। एक बार घुस गया तो निकलने का नाम ‘इज नही लेता। वो हर रिश्ते को। हर बोल को। हर वादे को। हर दावे को और हर काम को शक की नजर से देखते हैं। उनका शक हम पर भी होणा भी वाजिब कि भाईजी एक तरफ तो तोड़भांग से दूर रहने का दम भर रहे हैं और दूसरी ओर अरसों-बरसों पुरानी गाने के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। यह कथनी और करनी में हंडरेड परसेंट भेद है।
इस पर हथाईबाज साफ कर देना चाहते हैं कि हमने ना तोड़ की ना भांग, ना किसी के साथ खिलवाड़ किया। अरे, हम तो वो खिलौने हैं जिससे कई लोग खेल चुके हैं। जिसको जब मौका मिला, खेलने से नही चूका। हम किसी के साथ क्या खेलेंगे। हम खेल नही रहे वरन तब के गाने को आज की सच्चाई में पिरोकर परोस रहे हैं। ऐसा करना तोड़भांग है तो हम ऐसी तोड़भांग करते रहेंगे। हमें ऐसा करने से कोई नही रोक सकता। किसी में दम है तो एक-एक चाय और नान कताई हो जाए।
असल में शीर्षक की राग-तरन्नुम ‘डम-डम….डिगा-डिगा.. मौसम भीगा..भीगा.. पर आधारित है। यह गीत पचास साल पुराना है। हो सकता है उससे भी पुराना हो। आज की नस्ल की तो कह नही सकते। हमारे बखत के लोगों को वह गीत अच्छी तरह याद होगा। कई ने तो गुनगुनाया भी होगा। भूले-बिसरे गीत आज भी कानों में पड़ जाए तो जुबां से डम-डम..निकल ही जाती होगी। आज वह तर्ज-तरन्नुम खबरिया चैनल्स पर चौबीसों घंटे सुनाई दे रही है जिसे हथाईबाजों ने डम..डम.. से बदल कर ड्रग..ड्रग.. कर दिया। ऐसा उन्होंने चला के नहीं किया वरन टीवी वालों को देख के करना पड़ा।
देश और देशवासी पिछले लंबे समय से लगभग सारे टीवी चैनल्स पर भांत-भांत के राग-खटराग सुन रहे हैं। ऐसी राग जिन का आम आदमी से कोई नाता नहीं। उनकी खटराग सुन कर ऐसा लगता है मानो सबने एका कर लिया हो कि अब ये परोसना है..अब ये..। जैसे स्कूल में घंटे होते हैं ना..। घंटे बोले तो पिरियड्स ठीक वैसे चैनल्स पर राग-खटराग आपने एक्सरसाइज-पीटी के बारे में तो सुन ही रखा होगा। की भी होगी। यकीनन की होगी। पहली एक्सरसाइज के बाद दूसरी फिर तीसरी-चौंथी। टीवी पर भी वही हो रहा है। हमें एक्टर सुशांत सिंह की मौत पर दुख है। एक उभरता कलाकार असमय हमारे बीच से चला गया। उसकी मौत की सच्चाई सामने आनी ही चाहिए। टीवी वाले सारी खबरें छोड़ कर खुद मामले की जांच करने लग गए थे। सुशांत के नाम पर सबके सब चैनल्स, रिपोर्टर्स और एंकर्स अशांत। उसके साथ रिया का राग छिड़ गया। सुबह से लेकर शाम तक और शाम से लेकर रात तक।
रिया का रिकॉर्ड पखवाड़े तक घिसते रहे। फिर आई कंगना। उसके कंगन भी लंबे समय तक खनकते रहे। उसके साथ-साथ मुंबई में उसके दफ्तर में अतिक्रमण हटाने के नाम पर की गई तोडफ़ोड़। शिवसेना नेता संजय राउत के घटिया बोल और कंगना के नित नए ट्विट की चहकन भी चलती रही। उसके बाद थाली बजी। राज्यसभा में बजी थाली की गूंज आखे देश ने सुनी। चारों ओर थाली-थाली हो गई। कोई बोला थाली में छेद। किसी ने कहा-आप ने नही परोसी। किसी ने कहा हम ने अपनी मेहनत से थाली तैयार की है। थाली के साथ ड्रग का ड्रम भी बजने लगा। पिछले लंबे समय से उसी ड्रम को कूटा जा रहा है। फलां एक्ट्रेस घेरे में.. ढीमकी एक्टे्रस चपेटे में। इस बीच कथित यौन शोषण का राग अनुराग भी फुल स्पीड में गूंजा। रिपोर्टर हांफते-भागते-कूदते रिर्पोटिंग करते दिखाई देते हैं मानों बहुत बड़ी खोज कर रहे हों।
समाज में भांत-भांत की गंदगियां पसरी हैं। समाज में भांत-भांत की समस्याएं बिखरी पड़ी है। कोरोना महामारी से निपटने की चुनौती। झूठ से लेकर फरेब तक। कुरीतियों से लेकर गरीबी तक। अशिक्षा से लेकर भूख-भय और भ्रष्टाचार तक। नारियों का शोषण। बच्चियों के साथ पाशविक कृत्य। बेरोजगारी का भूत। बढती महंगाई। सूगली सियासत। लिपळे राजनेता। बदहाल मजदूर और किसान। न काम रहे ना धंधे। रोजी-रोटी की समस्या। बेपटरी होती जा रही अर्थ व्यवस्था। सीमा पर बैचेनी। दिन-ब-दिन खराब होती जा रही-नीति और नीयत। इंसानों में बढती खाई। इन सब को कुचल कर ड्रग-ड्रग…ड्रिगा..ड्रिगा.. की राग छेडऩा ठीक नही। फिर चैनल जाने और उनका काम जाने।