जीमण से बड़ा जीवन

हमने सोशल मीडिया उपदेशकों की तरफ कभी झांका ही नहीं, ना उन्हें और उनके उपदेशों को तवज्जोह दी। अब की बार ऐसा नहीं हुआ। कुछ उपदेशों पर नजर डाली तो ठीकठाक लगे। ठीकठाक लगे तो बांच लिए। बांच लिए तो सोचा कि आगे परोस दिए जाएं। हो सकता है- कोई अंगीकार कर ले। ऐसा हो जाए तो सबका भला,वरना खुद भले ही पानी की गिलास इधर से उधर ना रखें पर शासन-प्रशासन को कटके काढऩे में कंजूसी नहीं। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

होश संभालने से लेकर अब तक की बात करें तो हम-आप ने भांत-भांत के उपदेशक देखे होंगे। भांत-भांत के उपदेशक होते हैं तभी तो देखे। एक-दो प्रजातियां होती तो ओछी मे सिमट जाती-यहां तो उपदेशकों के शहर-जिले-राज्य बसे हुए हैं। यह बात दीगर है कि उन पर नाम का ठप्पा नहीं ठुका है। हमारी गुजारिश है कि इस पर ध्यान देना चाहिए। हम ने देखा-सुना और पढा कि फलां ‘टेसण का नाम बदल के ढीमका रख दिया गया है। इसके लिए बकायदा सारे गीत गाने पड़ते हैं। ऐसा नहीं कि साबजी ने मीडिया में बयान देकर कह दिया कि कल से फलाणे- स्टेशन का नाम फलाण हो जाएगा और अगले दिन से नया नाम सब की जुबां पे चढ जाएगा।


ऐसा होता तो बदला-बदली मे लाखों-करोडों फूंकने की नौबत नही आती। जैसे शादी के गीत गाए जाते हैं ठीक वैसे किसी ठोर ठिकाने का नाम बदलने पर किया जाता है। तमाम औपचारिकताएं पूरी करने में लाखों का कूंडा हो जाता है। इसमें भी लोचा ये कि कुरसी की अदला-बदली के बाद नाम फिर बदल दिए जाएं। प्रकृति का नियम है कि यहां कुछ भी स्थायी नही रहता। हमारा सुझाव है कि उपदेशकों के नाम पर भी टेसण-शहर-जिले-राज्य होने चाहिएं। जैसे जिसके उपदेश वैसा उसका नाम-स्थान। कोई धाकड़ उपदेशक रहा हो तो उसके नाम पर पूरा सूबा। किसी के नाम पर जिला तो किसी के नाम पर शहर-तालुका। बाजार-चौराहे और कॉलोनियां उनके नाम की जा सकती है। आगे उनका नाम-पीछे उपदेशक कॉलोनी। आगे उनका नाम-पीछे उपदेशक चौराहा। आगे उनका नाम-पीछे उपदेशक नगर।

मसलन-मांगीलाल सोशल मीडिया उपदेशक स्टेशन। मसलन-देवीलाल उपदेशक कॉलोनी। मसलन-धनजी उपदेशक चौराहा। इसमें लोचा ये कि उपदेशक ज्यादा-जगह कम। ऐसे में गली-गली उनके नाम हो सकती है। छिनजी उपदेशक गली। रतनजी उपदेशक गली। इसमे भी लोचा ये कि जब घर-घर उपदेशक बिराज रहे हों तो गली किसी एक के नाम पे क्यूं। इसका तोड़ घर-मकान का नामकरण। भीखजी उपदेशक भवन। केवलजी उपदेशक विला। रामूजी उपदेशक सदन। जिसकी जैसी सुविधा वैसा नाम-वैसा करण।


कुल जमा बात ये कि अपने यहां उपदेशकों की भरमार है। एक ढूंढो-सवा तीस हजार मिल जाएंगे। हालात ये कि उनको ढूंढने की भी जरूरत नहीं। अपने अंदर झांकने की फुरसत मिले तो आजमा के देखना-भतेरे उपदेश फुदकते-कूदते दिख जाएंगे।

उपदेश देणा और उपदेशों को जीवनचर्या में उतारना। उपदेश देणे और उपदेशों पर चलने में खासा फरक है। हम बचपने से सुनते आए हैं कि माता-पिता की सेवा करो। प्रत्येक बच्चे ऐसा करते तो गली-गली वृद्ध आश्रम खोलने की जरूरत क्यूं पड़ती। क्यूं वृद्ध आश्रम छिलमछिल रहते। संस्कृति और संस्कार आड़े नही आते तो वृद्ध आश्रमों के बाहर ‘हाउसफु ल के बोर्ड टंग जाते। हम बचपने से सुन रहे हैं कि चोरी करना पाप है, और ये पाप दिन-ब-दिन फैल रहा है। हम बचपने से सुन रहे हैं कि झूठ मति बोलो, आज सच ढूंढे नही मिलता। यदि सारे लोग उपदेशों पर चले होते तो आज देश का हाल-हूलिया और सुनहरा नजर आता।

हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा पर चलें तो हालात धीरे-धीरे सुधरने के पूरे आसार मगर यहां तो ‘धूड़ धाणी-धक्क पाणी जैसी स्थिति। फिर भी इस बात की तसल्ली कि कई लोग ऐसे माहौल में भी खुद को बचाए हुए हैं। हम-आप भी उनमें शुमार। हम उपदेश देते नही है, पालना करते है। सब की ना सही, पांच-पच्चीस तो जीवन में उतारे हुए हैं। हमने उपदेश सुने भी और जीवन में भी उतारे। अभी तक तो रामजी राजी है, कल क्या होगा-कौन जाणे।

हथाईबाजों ने ऐसे सोशल मीडिया उपदेशक भी देखे जो तड़के चार बजे से ज्ञान बघारना शुरू करते हैं और आधी-रात तक यही क्रम जारी रहता है। ऐसे लोग ‘आप गुरूजी बेंगण खावे..वाली कहावत के पक्कम-पक्के समर्थक। हमने कभी उनके ज्ञान-उपदेशों पर गंभीरता से गौर नही किया। पढा जरूर और हंस के रह गए। कारण ये कि कुछ को तो हम व्यक्तिगत रूप से जानते हैं।

हमें पता है कि वो कैसे हैं और कैसा ज्ञान बांट रहे है। पिछले दिनों दो-चार उपदेश सटीक लगे। उनमें ‘जीमण से बड़ा जीवन तो दिल को छू गया। दूसरा ‘मास्क कफन से छोटा होता है लगा लो भाई। इन दोनों का इशारा कोरोना के प्रति लापरवाह होते जा रहे लोगों की ओर। हम देख रहे हैं कि बाजारों मे भीड़ उमड़ रही है। लोगों को ना तो मास्क की चिंता ना देह दूरी की फिकर। गाइडलाइन की ऐसी-तैसी। तिस पर कोरोना का कहर बढता ही जा रहा है। अब शादियों का सीजन भी शुरू होने वाला है।

कहने को तो वहां लिमिटेड लोगों को बुलाने का नियम है, मगर हम ठहरे खावणखंडे। जीमण मे पीछे रहने वाले नही। ऐसे में उपदेशकों ने पहले ही चेता दिया कि शादी-ब्याह में भीड़ करना खतरे से खाली नही है। जीवन हैं तो जीमण भी होते रहेंगे। जान है तो जहान है। ऐसा ना हो कि जीमणे के फेर में गंगा परसादी की रस्म निभानी पड़ जाए। हथाईबाजों की सलाह है कि ऐसे उपदेशों को जीवन में उतारा जाए। थोड़े दिन की बात है। ये संकट टल जाणा है। इसके लिए हम सब को सचेत-सावचेत और सावधान रहने की जरूरत है।