ये दोगळापन क्यूं..!

कोई माने तो ठीक, नितर उनकी मरजी। हमारा काम देना है। किसी को सुट्ठी लगे तो मान सहित ग्रहण कर सकता है। अच्छी नही लगे तो हाथ जोड़कर ‘घिनवाद कह सकता है। कसम से हम तनिक भी बुरा नहीं मानेंगे। इसमें बुरा मानने वाली बात ही कहां। बड़े-सयानों ने भी कहा था, जिसे गीत-गाने में पिरो के परोसा गया। गुनगुनाने वाले गुनगुनाते भी है-‘मेरी बात के माने तो.. जो अच्छा लगे उसे अपना लो.. जो बुरा लगे उसे जाने दो। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


ऊपर के पेरेग्राफ में भतेरी बातें छुपी हुई हैं, जिन्हें हर कोई पहचान नही सकता। बातें इतनी गूढ़ भी नही कि समझने के लिए मगजमारी करनी पड़े। आज कल यह देखा जा रहा है कि लोगबाग ‘मगजमारी से बचने में ज्यादा विश्वास रखते है। अळूझे सुलझाना उनकी फितरत मे नही। वो झंझटों से दूर रहने वाले। नई नसल में से ज्यादातर को तो इसका मतलब भी समझ में नही आता। इस ताजी और हरी-भरी मिसाल खबरिया चैनल्स पर आने वाला एक विज्ञापन, जिसमें पिताश्री बाल काले करने में ‘झंझट शब्द का इस्तेमाल करते हैं और जवाब में उनकी गुडिय़ा ‘झंझट का मतलब पूछती है।

झंझट-मगजमारी-संघर्ष और मेहनत का सही अर्थ उनसे पूछो जिन के कारण हम-आप समाज में खड़े होने के लायक बने है। ये उनके संघर्ष का ही परिणाम था जिसकी की वजह से हम अपने पैर पर खड़े हुए। उन्होंने हमारे लिए ना केवल झंझटों से वरन झांझावतों से लोहा लिया। आज की नस्ल को उनके संघर्ष की हकीकत बताएं तो उन्हें कहानियां नजर आती है। बच्चे कहते भी है-‘दादू क्या कहानी बताई है..नानू शानदार स्टोरी है..।

उन्हें पकी-पकाई मिल रही है इसलिए उन्हें उनका संघर्ष कहानी लगता है। खुद झंझटों का सामना करेंगे तब एहसास होगा कि वो लोग कितने मजबूत थे, जिन्होंने हर मुश्किल का सामना कर अपने परिवार को कामयाब बनाया। पर ये बातें नई नस्ल की समझ के बाहर। उन्हें तो शॉर्ट कट चाहिए जबकि सच्चाई यह है कि सफलता का कोई शॉर्टकट नही होता। सोना तो तप के कुंदन बनता है। नाम के सोनाराम और सोना घणे’ इ मिल जाएंगे।


आज कल नामों में भी घालमेल। हमारे बखत में हर नाम के पीछे एक लॉजिक था। नाम के साथ प्रभू का नाम। किसी को उसके नाम से पुकारों तो उसके साथ मालिक का नाम भी निकलता है। इन में ‘ओम सब का सिरमौर। वैसे राम है। किशन है। हरी है। अंबिका है। पार्वती है। राधा है। प्रभू है। श्याम है। सीता है। दाऊ है। गोपाल है। इन सबमें भगवान। ओम में सारे भगवानों के नामों का समावेश।

तभी तो उस समय ओमप्रकाश-ओमसिंह और ओमानंद सरीखे नाम रखे जाते। पुत्तर शरद पूर्णिमा को हुआ तो नाम शरद और पुत्तरी पूर्णिमा को हुई तो पूनम। अब उलटा हो रिया है। एक तो मालिक के नाम पर रखने की प्रथा खल्लास-दूसरा अंटशंट नामों की बहार। जैकी-टॉनी-रॉकी-मोंटी। भला ये कोई निकनेम या शॉर्ट नेम है, पर चल रहे हैं। सलाह दो तो कोई मानने वाला नहीं। बात घूम-फिर के देने पे आ गई। यूं कहें कि घूमा-फिरा के ले आए, तो भी गलत नहीं।


हमारी सलाह है कि शासन-प्रशासन को यह ऐलान कर देना चाहिए कि जितने भी नियम-कायदे-कानून बनाए जा रहे हैं, वो जनता के लिए हैं-नेतों और पहुंचवान लोगों के लिए नही। मैंगों मैन्स ने नियम तोड़े तो खाल खींच ली जाएगी और माननीयों ने तोड़े तो नजर अंदाज कर दिया जाएगा। इस टोटके को मीडिया-सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से प्रचारित-प्रसारित किया जा सकता है। कोई चाहे तो गुवाडिय़ों-गलियों और गांव-ढाणियों तक मुनादी फिरवा सकता है-‘सुनो.. सुनो.. सुनो.. आम लोग कान खोल के सुन लें कि सारे सरकारी-प्रशासनिक कानून-कायदे और नियम आप लोगों पर ही लागू होंगे। यदि किसी ने अवहेलना की कोशिश की तो भारी भरकम जुरमाना देना पड़ सकता है-या जेल भुगतनी पड़ सकती है। दोनों प्रावधान भी लागू हो सकते हैं। बड्डे लोग इन नियमों की धज्जियां उड़ाएं तो आंखें मींच ली जाएंगी..।


हथाईबाज पिछले लंबे समय से ऐसा होता देख रहे हैं। मांगिया मास्क ना लगाए तो पांडु चालान काट देगा और मांगीलाल नेता उघाड़ा मुंह लेकर डोले तो वही पांडु सलाम ठोकेगा। ऐसा क्यूं भाई। यह दोहरापन क्यूं। ये दोगळापन क्यूं। नियम सब पर लागू होने चाहिएं। क्या आम और क्या खास, पण ऐसा हो नही रहा। गौरे अंगरेज चले गए-काले अंगरेज छाती पे मूंग दल रहे हैं। उनके मूंग-हरिए-मोठ-चने और घट्टी-घटूलिए जब्त करने होंगे, नितर ये दोगळापन चलता रहेगा।