
ऑस्ट्रेलिया में बनाई राजस्थानियों की मदद के लिए ‘एसोसिएशन ऑफ ऑस्ट्रेलियन राजस्थानी’ संस्था
राजेन्द्र सिंह गहलोत
अपना वतन छोड़कर परदेस में अपना घोंसला बना लेते हैं प्रवासी परिन्दे। प्रवासी परिन्दों की तरह ही प्रवासी इंसान भी होते हैं जो घर से चले जाते हैं परदेस में दाना-पानी की तलाश में। सवाल यह है कि इन परिन्दों को या प्रवासियों को क्या अपने वतन में दाना-पानी नहीं मिलता, जवाब यह मिला कि दाना-पानी तो मिलता है, लेकिन उसमें बहुत कठिनाईयां हैं, व्यवस्था ऐसी है कि दाना-पानी के जुगाड़ में ही पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है, लगता है कि जीवन जैसे सिर्फ दाना-पानी के जुगाडऩे के लिये ही है, और अंतत: इसी संघर्ष में जीवन समाप्त हो जाता है, यही कारण है कि आज परदेस में करोड़ों की संख्या में प्रवासी भारतीय है।
फलौदी, जोधपुर में जन्में जितेन्द्र शर्मा ने ऑस्ट्रेलिया में शुरू किया करियर
ऐसे ही ऑस्टे्रलिया में रह रहे एक प्रवासी राजस्थानी हैं जितेन्द्र शर्मा, उन्होंने अपने बारे में जानकारी देते हुए बताया कि मैं फलौदी, जोधपुर में जन्मा, बीकानेर में पला-बढ़ा, जयपुर में पढ़ाई की, फिर ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न से मास्टर ऑफ बिजनेस की डिग्री ली और ऑस्ट्रेलिया में ही प्रोजेक्ट पोर्टफोलिया मैनेजर के रूप में काम किया, जिसमें मैं बड़ी बड़ी कंपनियों के प्रोजेक्ट भी देखता हूँ और अकाउंट्स भी देखता हूँ, अभी मैं ऑस्ट्रेलिया की सरकारी कंपनी के लिये काम कर रहा हूँ।
जितेन्द्र शर्मा ने शिक्षा के अंतर को लेकर बयां किया दर्द

जितेन्द्र शर्मा ने अपने मन की पीड़ा दर्शाते हुए कहा कि अपने वतन और परदेस में मूलभूत अंतर शिक्षा का है, अपने वतन में व्यावहारिक ज्ञान बिल्कुल नहीं दिया जाता, वहां की पढ़ाई सिर्फ और सिर्फ शिक्षण संस्थान में जाकर किताबें रटकर परीक्षा पास करवाने के लिये होती है, जैसे कोई कॉमर्स विषय लेता है तो बड़े से बड़े शिक्षण संस्थान में छात्रों को यह नहीं कहते कि आज तुम्हें बैंक लेकर चलते हैं, बैंक में अकाउंट कैसे खोलते हैं, बैंक में ग्राहकों की व्यावहारिक परेशानियां क्या होती हैं और बैंक ग्राहकों को अपनी सेवाओं से कैसे संतुष्ट करता है, यह सब तुम्हें सिखाया जायेगा। शिक्षण संस्थान कभी यह नहीं कहते कि आज तुम्हें चार्टर्ड अकाउंटेंट के पास लेकर चलते हैं और वहां तुम्हें व्यावहारिक रूप से इनकम टैक्स रिर्टन भरना सिखाया जायेगा।
डिग्री हासिल करके भी छात्र व्यावहारिक ज्ञान के अभाव में रहता है जीरो
शिक्षण संस्थान कभी यह नहीं कहते कि चलो तुम्हें बीएसई और एनएसई से शेयर खरीदना और बेचना सिखाते हैं, कौनसा शेयर खरीदना चाहिये और कौनसा नहीं, किस स्टेज पर शेयर खरीदना चाहिये और कब बेच देना चाहिये, ये सिखाते हैं। शिक्षण संस्थान ये कभी नहीं सिखाते क्योंकि वो खुद भी नहीं जानते है। नर्सरी कक्षा से लेकर पढ़ाई पूरी करने तक लाखों रूपये बर्बाद करके डिग्री हासिल करने के बाद भी छात्र व्यावहारिक ज्ञान में रहता है बिल्कुल जीरो। मजे की बात यह कि जो लाखों रूपये बर्बाद करके एक बेकार सी डिग्री हासिल की, वे लाखों रूपये देश के किसी काम नही आते, उससे देश का आर्थिक विकास नहीं होता, वह सारा रूपया मात्र एक इंस्टीट्यूशन के मालिक के पास चला जाता है।
चार्टर्ड अकाउंटेंट की परीक्षा इतनी मुश्किल, अधिकांश छात्र तो पास ही नहीं होते
मेरा मानना है कि अब उस इंस्टीट्यूशन से लाखों रूपया और पूरा बचपन बर्बाद करके जो डिग्री हासिल की कि नौकरी मिलेगी तो उसमें भी जातिगत आधार पर आरक्षण की व्यवस्था कुंडली मारकर बैठी हुई है, इस आधार पर 90 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाला नौकरी के काबिल नहीं समझा जाता और 40 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले को नौकरी दे दी जाती है। फिर 40 प्रतिशत प्राप्त कर नौकरी प्राप्त करने वाले देश चलाते हैं। इसके अलावा नियम कायदे बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं हैं जैसे कि चार्टर्ड अकाउंटेंट की परीक्षा में पास होने वालों को कोई नौकरी नहीं दी जाती बल्कि मात्र एक सर्टिफिकेट दिया जाता है कि आप अपना इंस्टीट्यूट खोल सकते हैं और अपना व्यवसाय शुरू कर सकते हैं, और वह परीक्षा इतनी मुश्किल कर दी गई है कि अधिकांश छात्र तो पास ही नहीं होते।

कट ऑफ की दौड़ है, जिसे कोई चेलेन्ज नहीं करता
कैसी विडम्बना है कि इस तरह शिक्षा के नाम पर एक शिक्षण संस्थान को लाखों रूपये देकर उसकी कमाई करके और अपने बच्चे का जीवन बर्बाद करने के बाद जो डिग्री मिलती है उससे नौकरी तक नहीं मिलती, क्योंकि कट ऑफ की दौड़ है, जिसे कोई चेलेन्ज नहीं करता, आईएएस की परीक्षा में एक लाख छात्र बैठते हैं, लेने होते हैं पांच हजार, यानि पांच हजार तो आईएएस बन जायेंगे और जो 95 हजार नहीं बन पाये, उन्होंने अपना समय खराब किया और वो जीवन भर हताशा और निराशा में जियेंगे, यही हाल आईआईटी और आईआईएम का है। अब ये 95 प्रतिशत छात्र वो हैं जिन्हें इनके शिक्षण संस्थान ने मात्र किताबें पढ़ाई थी, जीवन के बारे में कुछ भी नहीं सिखाया था, अब ये नौकरी भी हासिल नहीं कर सके, और जीवन में भी फेल हैं। अपने वतन में समानता के अवसर ही नहीं हैं, कैंपस प्लेसमेंट है।
परदेस में संवेदनाएं बहुत है, 12वीं के अंकों के आधार पर छात्र हर नौकरी के लायक हो जाता है
इसके इतर परदेस में बच्चे को जीवन जीने दिया जाता है, स्कूल वाले उसे व्यावहारिक ज्ञान देते हैं, वे उसे सड़क पर ले जाते हैं और सड़क पार करना सिखाते हैं कि हो सकता है तुम्हारे पिता के पास रॉल्स रायस गाड़ी हो और तुम्हें कभी खुद से सड़क पार करने की जरूरत ही नहीं पड़े लेकिन तुम्हें जीवन जीने में काम आने वाली बेसिक चीजें आनी चाहिये। चलो तुम्हें आज जिस शहर में रहते हो वह शहर घुमाने ले चलते हैं तुम्हें अपने शहर के बारे में किताबों के द्वारा नहीं, व्यावहारिक रूप से पता होना चाहिये। चलों तुम्हें बैंक में खाता कैसे खुलवाते हैं यह सिखाने के लिये बैंक ले चलते हैं। कुल मिलाकर बच्चे को किताबें पढ़ाकर परीक्षा पास करने के लिये तैयार न करके बच्चे का सर्वांगीण विकास किया जाता है ताकि उसमें व्यावहारिक ज्ञान हो, वह समाज का हिस्सा हो, उस पर परीक्षा का प्रेशर नहीं हो, इसलिये परदेस में सरकारी स्कूल से पास होने के बाद भी अच्छी नौकरी मिल जाती है क्योंकि परदेस में संवेदनाएं बहुत है, 12वीं के अंकों के आधार पर छात्र हर नौकरी के लायक हो जाता है, कैंपस प्लेसमेंट नहीं होता। बच्चें को उसका जीवन भरपूर जीने दिया जाता है।
नेटवर्क बनाना, लोगों को सही राह दिखाना पसंद है
मुझे नेटवर्क बनाना पसंद है, लोगों को सही राह दिखाना पसंद है, सही सलाह देना पसंद है, लोगों से जुडऩा पसंद है और लोगों को अपने से जोडऩा पसंद है, ताकि हम वक्त वेवक्त एक दूसरे के काम आयें। इसीलिये मैंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ऑस्ट्रेलिया में असोसिएशन ऑफ ऑस्ट्रेलियन राजस्थानी बनाई है, हमारी असोसिएशन में कोई मेम्बरशिप फीस नहीं है, बस वे राजस्थान के हों, समान विचारधारा के हों, भारतीय मूल्यों को सेलिब्रेट करे, एक-दूसरे से जुड़े, एक-दूसरे के काम आयें, एक-दूसरे को बिजनेस दें और एक-दूसरे के कल्चर को समझें। हमने कोरोनाकाल में व्हाट्सएप पर हेल्पलाइन भी लॉन्च की थी, जिसमें राजस्थानियों ने सम्पर्क कर मदद भी मांगी थी। हमने एक इवेन्ट भी किया जीमण, जिसमें राजस्थानी शाकाहारी खाना, बेसन के गट्टे, दाल बाटी चूरमा, पापड़, टिरपोलिये थे, सबने बड़े चाव से राजस्थानी खाना खाया।
मैं आज जो कुछ हूँ, उसमें मेरे माता पिता का बहुत बड़ा योगदान रहा
ऑस्ट्रेलिया में मेरी पत्नि दीपिका मेलर्बन यूनिवर्सिटी में प्रोजेक्ट मैनेजर है, और मेरी 8 साल की बेटी नव्या दूसरी कक्षा में पढ़ती है उनके साथ जीवन बहुत मजे में जिया जा रहा है। मैं आज जो कुछ हूँ, उसे बनाने में मेरे माता पिता का बहुत बड़ा योगदान रहा, मेरे पिता विजयकुमार शर्मा टूरिस्ट गाइड हैं, जो अंग्रेजों के साथ रहते थे, जिसके कारण मैंने विदेशी कल्चर को भी समझा, उन्होंने मुझे हर तरह की स्वतंत्रता दी, इनडिपिंडेंट बनने से कभी नहीं रोका, उनका इतना ही कहना था कि तुम अपने पांवों पर खड़े हो जाओ और समाज को अपना योगदान देने के काबिल हो जाओ, बस इतना ही
बहुत है।
राजस्थानी छात्रों को संदेश
निडऱ बनों, स्वतंत्र बनों, माता-पिता की छत्रछाया से बाहर निकलो, स्वतंत्र बनोगे तो स्वतंत्र सोचोगे, स्वतंत्र सोचोगे तो इंडिपिंडेंट बनने की कोशिश करोगे, ट्यूशन करके, कॉल सेंटर पर काम करके या अन्य तरह से फीस भी निकालोगे और पढ़ाई के साथ साथ अपना खर्चा भी निकालोगे, माता पिता पर बोझ नहीं बनोगे। इसलिये नेटवर्क बनाओ। निडर होकर सवाल पूछो, जो बंदा काम कर रहा है उससे पूछो कि आप यहां तक कैसे पहुंंचे, वह नहीं बताये तो दूसरे से पूछें, तीसरे से पूछें, पूछते जायें जब तक जवाब नहीं मिले, जितना पूछोगे, उतना सीखोगे, उतना तैयार होओगे।