जिंदाराम मृतक की-जै

शीर्षक पढते ही कई लोगों की ललाट पर सिलवटें पड़ गई होंगी। पड़ी सो तो पड़ी, बढ़ भी गई होंगी। पडऩा और बढऩा स्वाभाविक हैं। ऐसा होना लाजिमी है। सिलवटों के साथ सवाल भी-अइसा कइसे होता है, या कि ऐसा-कैसे हो सकता है। कै तो कोई जिंदा-कै मृत। कभी-कभार ऐसे किस्से भी दरपेश आए तब किसी मृत घोषित ने थोड़ी देर बाद आंखें खोल दी। शहर की हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

ज्यादातर लोगों का मानना है कि या तो जिंदा या फिर मृत। ज्यादातर क्या सारे के सारे और सभी के सभी ऐसा ही मानते हैं और ऐसा ही होता है। जिंदा और मृत अपने आप में विरोधाभास है। जांच का विषय है कि ये जिंदा है या मृत। मृत है या जिंदा। जिंदा है तो भगवान उसकी हजारी करे। भगवान उन्हें हरिया-भरिया रखे और जो मृत घोषित कर दिया गया हो उस की अंतिम यात्रा की तैयारी।

जांच की मांग इसलिए की कि किसी के स्वर्गीय होने की घोषणा डाक्टर उसकी अच्छी तरह जांच के बाद ही करते हैं। वैसे भी आज कल जांच की आंच पूरे देश में छाई हुई है। कहीं सीबीआई की जांच, तो कहीं न्यायिक जांच। कही सुरक्षा संबंधी जांच, तो कहीं विभागीय जांच। कहीं पुलिसिया जांच तो कहीं सीआइडी सीबी जांच।

पहली जांच किस एजेंसी ने की। किस केस में की। उस जांच का क्या हुआ। जांच रिपोर्ट पर क्या एक्शन लिया गया। इसके बारे में किसी के पास कोई अधिकृत जानकारी नहीं। राजों-महाराजों और मुगलिया शासन के दौरान किसी मंतरी-कारिंदे को जांच सौंप दी जाती थी या उन का खुफिया तंत्र किसी गंभीर-मसले मुद्दे की जांच करता था। इस के बारे में कहीं कुछ पढने को नही मिला। हम ने इतिहास पढ रखा है। इतिहास की पुस्तकें पढ रखी हैं। हमने कही ये नही पढा कि गंगूआ तेली की गाय चोरी के मामले की जांच महाराजा फदाक सिंह ने अपने किसी कारिंदे से करवाई हो। इधर सुनवाई और उधर फैसला। मुगलिया शासन में भी ऐसा होते नही सुना। फिरंगी हुकूमत के दौरान इसका बिस्मिल्लाह हुुआ लगता है। वहां भी एक तरफा जांच। देश पे अतिक्रमण गौरों का। कारिंदे गौरे। हुकूमत उन की। फिर किस की मजाल जो उनके विरूद्ध जाए। गौरा दोषी हो तो भी दोषारोपण भारतीय पर और भारतीय निरदोष हो तो भी गुनाह उसके माथे पर। आजाद होने के बाद भी हमने फिरंगियों के हजारों-हजार कानूनों को ढोया। हजारों-हजार नियमों को कांधा दिया।

एक मिनट के लिए मान लें कि जिंदा-मृत की जांच किसी एजेंसी को सौंप दी जाए तो रिपोर्ट कैसी आएगी। जानने वाले जानते हैं कि ना तो ऐसा हुआ ना किसी जांच एजेंसी को जांच सौंपी जाणी है। पर ऐसा हो सकता है। ऐसा हो रहा है। जांच में साबित भी हो चुका है कि भले ही हम जिन्हें जिंदा मानते रहे वो हमारे बीच ना हो मगर सरकारी कागजों में अवश्य मिल जाएंगे।

यदि ‘जिंदा-मृत प्रकरण की ईमानदारी के साथ जांच करवाई जाए और रपट आने में भले ही पांच साल लग जाएं मगर परिणाम सार्थक आने के पूरे चांसेज। हो सकता है कि जांच ऐसी आए कि कोई किसी मृत को जिंदा बताने का गुनाह ना कर सके।

हथाईबाज ऐसे प्रकरणों के पीछे छुपे कारणों के बारे में बखूबी जानते हैं। कई मे आलस। कई में नासमझी और कई में स्वार्थ। यदि आलस है तो तोड़ो। ना समझी है तो जागरूकता जरूरी और स्वार्थ है तो छोड़ो, नितर कार्रवाई। कई मृत लोग वोटर लिस्ट में पाए जाते हैं। वोटों के समय वो लोग धरती पे आते हैं, वोट देते हैं और वापस अपने लोक में चले जाते हैं। कई मृत राशन कार्डों में विराजते हैं। भले ही उनका अंतिम संस्कार हो चुका हो, मगर उनके नाम की राशन सामग्री उठती है। मनरेगा रजिस्टर में स्वर्गीय आत्माएं मिल जाएंगी। वो लोग कथित रूप से मनरेगा में काम करते हैं और उनके नाम का भुगतान भी उठता है। भुगतान किस की जेब में जाता है, बताने की जरूरत नही। कुछ क्षेत्रों में नियम कड़े हो गए वरना मृतकों की पेंशन भी लंबे समय तक उठने के मामले चौड़े आ चुके हैं।

कुल जमा समाज में जिंदा मृत कहीं ना कहीं, किसी न किसी रूप में मिल ही जाएंगे। हमारा सिर्फ इतना कहना कि जो जिंदा हैं वो शान से रहें और जो स्वर्गीय हो चुके हैं उनकी आत्मा को शांति मिले। हम तो यही कहेंगे-अमर आत्मा की जै.., जिंदाराम मृतक की जै।

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